SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३८२ ) का संनिकर्ष होने पर चक्षु-विज्ञान आदि उत्पन्न हो जाते हैं। उसके बाद चित्त को किसी बाह्य पदार्थ की सत्ता की अनुभूति होती है और वह उसे ग्रहण करने के लिए उत्सुक होता है । यही चित्त की अवस्था 'सम्पटिच्छन्न' कहलाती है। जब उसे ग्रहण करने के लिए वह अनुसन्धान करने लगता है तो यही अवस्था 'सन्तीरण' कहलाती है । इन सब व्यापारों में द्रष्टा को अपने आप की चेतना नहीं होती। ये सव व्यापार सुषुप्त चेतना या अर्द्धचेतना की अवस्था में होते हैं। अतः इन विज्ञानों का कोई हेतु नहीं होता। वे पूर्व जन्मों के शुभ या अशुभ कर्मों के परिणाम स्वरूप ही उद्भूत होते हैं। इस आरमभिक अवस्था में उनमें सुख या दुःख की वेदना का भी सवाल नहीं उठता । वे उपेक्षा (न-सुख-न-दुःख) की वेदना से युक्त होते है। काय-विज्ञान अवश्य सुख या दु:ख की वेदना से युक्त होता है । (ख) आठ कामावचर विपाक-चित्त (पूर्वजन्म के कुशल-चित्तों के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न होने वाले विपाक-चित्त भी उनके समान ही संख्या में आठ हैं, यथा--- १. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-सम्प्रयुक्त असांस्कारिक २. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-संप्रयुक्त, ससांस्कारिक ३. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, असांस्कारिक ४. सौमनस्य से युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, ससांस्कारिक ५. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान-संप्रयुक्त, असांस्कारिक ६. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान-संप्रयुक्त, ससांस्कारिक ७. उपेक्षा मे युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, असांस्कारिक ८. उपेक्षा से युक्त, ज्ञान-विप्रयुक्त, ससांस्कारिक (ग) सात अकुशल विपाक-चित्त (पूर्व जन्म के अशुभ-कर्मों के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न) १. चक्षु-विज्ञान उपेक्षा (न-दुःख-न-मुख) से युक्त २. श्रोत्र-विज्ञान ३. घ्राण-विज्ञान
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy