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________________ अधिकार को, जिमे गास्ता ने उन्हें दिया, छीनने का ही उद्योग करतं है ! यह उनकी एक भार: दिगेपता है। विनय को मूल आत्म-संयम है। मंयम अर्थात् काया का मंयम, वाणी का संयम, मन का नयम । कायिक, वाचिक और मानसिक कर्मों का समाधान. मन्यक् आधान, ही नील' कहलाता है। शील की समापत्ति के लिए वो बिनय-नियमों का विवान किया गया है, यद्यपि यह ठीक है कि वहाँ उसके बाहरी म्प को लक्ष्य कर के हो अधिकतर नियम बनाये गए है। फिर भी शाम्ता के द्वारा मानसिक नयम पर जो जोर दिया गया है, वह भी उनके मन में सरक्षित है, ना कहा जा सकता है। केवल किमी कर्म के कग्ने या न करने में ही गील-विद्धि नहीं हो जाती। भगवान् ने स्वयं कहा भी है "मागन्दिय ! न दृष्टि में, न अनुभव . न ज्ञान से, न गील मे, न त से गुद्धि कहता हूँ। अष्टि, अ-श्रुति, अ-ज्ञान, अगोल, अ-व्रत में भी नहीं।” निश्चय ही किसी कर्म के करने या न करने पर मदाचार उतना निर्भर नहीं है जितना उन कर्म-व्यापार के अन्दर रहने बाली मानसिक प्रवृति पर। इसीलिए चेतना पर भगवान् ने मर्वाधिक जोर दिया है। चक्षु, श्रोत्र, घ्राण. जिह्वा, काय और मन के संयम का अर्थ यह नहीं है कि इन भौतिक या मानसिक इन्द्रियों में अपने आप में संयम जैसी कोई वस्तु होती है. वल्कि केवल यही है कि जिन जिन वस्तुओं की अनुभूति इनके द्वारा होती है उनके प्रति मानवीय व्यवहार में संयम पैदा होना चाहिए। 'चक्षु-इन्द्रिय ने संयन को प्राप्त होता है (चक्खुन्द्रिये मंदरं आपज्जति) इमका अर्थ यह नहीं है कि माधक भौतिक चश् को मंयमित करता है,या चक्षु और रूप के संयोग को ही निन्द्र करता है। यदि ऐसा होता ना आँच मींचने वाला सर्वोतम संयमी होता। अत: चरिन्द्रिय में संयम प्राप्त करने का अर्थ है चक्ष इन्द्रिय मात्र को ही संयमित नही करना (यद्यपि है तो वह भी आवश्यक ) बल्कि चक्ष के द्वागदेवे हए इस के प्रति अपने व्यवहार को संयमित रखना। यही बात थोत्र और शब्द, वाग और गन्ध , जिह्वा और रस, कार और स्पर्श तथा मन और धर्म (मानभिक पदार्थ) के विषय में भी जाननी चाहिए। अभिधम्म की भाषा का प्रयोग करते हए इस तथ्य का बड़ा विवाद निम्पण आचार्य दुघोष ने 'विद्धि-मग' के प्रथम परिच्छेद में किया है। वास्तव में शास्ता का मन्तव्य चित्त को मंयमित करने का ही है और उनी उद्देश्य के अनमार हमें विनय के नियमों की भी व्याम्या करनी चाहिए। जो बातें गग, संग्रह, अमन्तोष, अनुद्योगिना और इच्छाओं को बढ़ाने वाली है
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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