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________________ ( ३०७ ) अन्य भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं, जहाँ भगवान् बुद्ध ने विनय सम्बन्धी नियमों को पूरी तरह पालन करने का भिक्षुओं को उपदेश दिया है। जब तक भगवान् जीवित रहे, तब तक उनके व्यक्तित्व और साक्षात् सम्पर्क ने मनुष्यों को प्रेरणा मिलती थी। किन्तु उनके परिनिर्वाण के बाद तो विनय-सम्बन्धी नियम हो संध की एकता और मौलिक पवित्रता के एक मात्र मापदंड रह गए। उसके बाद बौद्ध संघ में विनय-पिटक का जो महान् आदर और गौरव प्रतिष्ठापित हुआ वह उसकी संकीर्णता या साम्प्रदायिकता का द्योतक नहीं था । वह भिक्षओं की उम व्यग्रता का द्योतक था जिसके साथ वे 'छिले शंख की तरह निर्मल' (शंखलिखित) शाक्य-मुनि के शासन को उसकी मौलिक पवित्रता में रखना और दखना चाहते थे। उनका वह प्रयत्न वेकार नहीं गया है, यह हम आज भी देख सकते हैं। वैशाली की संगीति के अवमर पर ही धर्म-वादी भिक्षओं ने किम प्रकार भगवान के मौलिक उद्देश्यों की रक्षा की, यह हम उसके विवरण में (द्वितीय अध्याय में) देख चुके है । लंका, वरमा और स्याम के मिन-संघों के इतिहास में किस प्रकार विहार-सीमा और पारुपण (चीवर को दोनों कन्धे ढंक कर पहनना), एक सिक (चीवर को इस प्रकार पहनना, जिसमे एक कन्धा, दाहिना कन्धा खुला रहे) आदि अल्प महत्व के विनय-सम्बन्धी प्रश्नों को लेकर भी उत्तरकालीन युगों में जो वाद-विवाद होते रहे है वे न केवल उन देशों में बद्ध-धर्म के जीवित स्वरूप में विद्यमान होने के प्रमाण हैं. बल्कि उसे उमी मौलिक, अक्षुण्ण पवित्रता के साथ रखने की व्यग्रता के भी अविवाद लक्षण है । अतः स्थविरवादी बौद्ध धर्म के क्षेत्र में विनय-पिटक की जो प्रतिष्ठा प्रारम्भिक युग मे अब तक रही है. वह एक जीवित ऐतिहासिक तथ्य है और ऊपर के तथ्यों को देखते हुए वह मार्थक भी है । . बौद्ध संघ में विनय-पिटक का सदा से कितना आदर रहा है और उमके उत्तरकालीन इतिहास के निर्माण में उसका कितना बडा हाथ रहा है, यह ऊपर के विवरण से स्पष्ट है । वास्तव में भिक्षु-संघ ने अत्यन्त प्राचीन काल मे उसे सत्तपिटक से भी अधिक ऊँचा स्थान दिया है, क्योंकि उसे ही उन्होंने बुद्ध-शासन की आय माना है। उनका विश्वास रहा है कि जब तक विनय-पिटक अपने मौलिक, विशद्ध रूप में रहेगा तभी तक बद्ध-शासन भी जीवित रहेगा और विनय-मम्बन्धी
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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