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________________ ( ३०५ ) एक बार शिक्षापदों और प्रातिमोक्ष-सम्बन्धी नियमों का प्रज्ञापन करने के वाद संघ की स्थिति के लिए वह अत्यन्त आवश्यक हो गया। किन्तु शास्ता यह जानते थे कि एक बार आन्तरिक संयम से च्युत हो जाने के बाद उसे बाहरी नियमों के बन्धन में बाँध कर नहीं रक्खा जा सकता था। भिक्षुणी-संघ की स्थापना के समय भिक्षुणियों के लिए जीवन-पर्यन्त पालनीय आठ गुरु धर्मों (बड़ी शर्तो) का विधान करते समय ही शास्ता को यह प्रतिभान हो गया था कि यह बाहरी रोकथाम अधिक दिन तक चल नहीं सकती। “आनन्द ! जैसे आदमी पानी को रोकने के लिए, बड़े तालाब की रोक-थाम के लिए, मेंड बाँधे, उसी प्रकार आनन्द ! मैंने रोक थाम के लिए, भिक्षुणियों को जीवन भर अनुल्लंघनीय आठ गुरु धर्मों को स्थापित किया।" फलतः “आनन्द ! अब ब्रह्मचर्य चिरस्थायी न होगा, सद्धर्म पाँच सौ वर्ष ही ठहरेगा।" विचार-स्वातन्त्र्य की महत्त्वानुभूति पर आश्रित बुद्ध-मन्तव्य कभी मनुष्य को बाहरी नियमों के बन्धन में बाँधने वाला नहीं हो सकता था। जो कुछ भी नियम उन्होंने आवश्यकतावश प्रज्ञप्त किये थे, उनमें से अनेक ऐसे भी हो सकते थे जो उसी युग और परिस्थिति के लिए अनुकूल हों और जिनका सार्वकालिक या सार्वजनीन महत्त्व प्रतिष्ठापित करना उसी बुद्धिहीनता, संकुचित वृत्ति और सच्चे उद्देश्य को छोड़ कर बाहरी रूप की ओर दौड़ने की प्रवृत्ति का सूचक हो, जो धर्म-साधनाओं के इतिहास में अक्सर देखा जाता है, इसकी भी पूरी अनुभूति भगवान बुद्ध को थी, यह हम परिनिर्वृत्त होने से पहले उनके इस आदेश में देखते है “इच्छा होने पर संघ मेरे बाद क्षुद्रानुक्षुद्र (छोटे-मोटे) शिक्षा पदों को छोड़ दे।" संघ बाहरी बन्धन अनुभव न करे, इसीलिए उन्होंने अपने बाद किसी व्यक्ति को जान बूझ कर उसका नेता तक नहीं चुना। एकमात्र 'धम्मविनय' रूपी नेता की शरण में ही उन्होंने भिक्षु-संघ को छोड़ा। उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया "भिक्षुओ ! मैने बेड़े की भाँति निस्तरण के लिए तुम्हें धर्म का उपदेश दिया है, पकड़ रखने के लिए नहीं। धर्म को बेड़े के समान उपदिष्ट जान कर तुम धर्म को भी छोड़ दो. अधर्म की तो बात ही क्या ?"३ यही बात विधि-निषेध-परक १. देखिये विशेषतः महापरिनिब्बाण-सुत्त (दोघ, २॥३); गोपक-मोग्गल्लान-सुत्त (मज्झिम ३३११८) २. अलगद्द पम-सुत्त (मज्झिम १३२) २०
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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