SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २१३ ) सन्देह नहीं कि वह काफी वाद का है। स्थविरवाद-परम्परा के पूर्वतम स्वरूप में भूत-प्रेत आदि की बातें अथवा उनसे बचने के लिये जादु के से प्रयोग बिलकुल नहीं है। ये सब बातें सामान्य अंध विश्वासों के आधार पर उसमें प्रवेश कर गईं। इस दृष्टि से दीघ-निकाय के आटानाटीय-सुत्त जैसे अंग भी उत्तरकालीन ही कहे जा सकते हैं। भगवान् बुद्ध ने योग की विभूतियों के भी प्रदर्शन की निन्दा ही की । फिर जादू के प्रयोगों की तो बात ही क्या ? प्रतीत्यसमुत्पाद के आधार पर सृष्टि के व्यापारों की व्याख्या करने वाला मन्त्रों के जप से बीमारी से विमुक्ति दिलाने नहीं आया था। जहाँ तक 'परित्त' के सुत्तों का सम्बन्ध है, वे अपने आप में नैनिक भावना से ओतप्रोत हैं। उनके अन्दर स्वयं कोई ऐमी वस्तु नहीं जो उस उदात्त गम्भीरता से रहित हो जो सामान्यतः नौट माहित्य की विशेषता है। उनका पाट निश्चय ही मनको ऊँची आध्यात्मिक अवस्था में ले जाने वाला है । अतः उनका संगायन करना प्रत्येक अवस्था में मंगल का मल ही हो सकता है। बीमारी की अवस्था में वह मानसोपचार का अङ्ग भी हो सकता है, कुछ-कुछ उसी प्रकार जैसे रामनाम के स्मरण को गांधी जी ने प्राकृतिक चिकित्सा का एक अङ्ग बना दिया। यदि परित्त पाठ में अन्ध-विश्वास है तो उसी हद तक जितना गांधीजी की उपयुक्त उपचार-विधि में। फिर हम इसे अन्ध-विश्वाग भी क्यों कहे ? जिससे मन ऊँची अवस्था में जा सकता है, उससे शरीर पर भी स्वस्थ प्रभाव क्यों न पड़ेगा? इस दृष्टि से परित्त-पाठ का उपदेश स्वयं बुद्ध भगवान् का भी दिया हुआ हो सकता है, हाँ वहाँ कर्मकांड अवश्य नहीं है। भगवान् ने सर्प को अपनी मैत्री-भावना से आच्छादित कर देने का आदेश दिया। सर्प के भय से वचने का यही १. विनय-पिटक, चुल्लवग्ग में विभूति-प्रदर्शन को 'दुष्कृत' अपराध बतलाया गया है। मिलाइये ; धम्मपदट्ठकथा ४१२, बुद्धचर्या, पृष्ठ ८२-८३ में अनुवादित । देखिये केवट्ट-सुत्त (दीघ १।११) तथा सम्पसादनिय-सुप्त (दोघ. ३१५) महालि-सुत्त (दोघ ३१६),आदि । २. मेतेन चित्तेन फरितुं (मित्रतापूर्ण चित्त से आच्छादित कर देने के लिये)--- विनय-पिटक । साधारण अर्थ में इसे मन्न कहना तो बुद्धि का उपहास ही होगा।
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy