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________________ ( १७५ ) शाखाएँ टूट जायें, उसी प्रकार भिक्षुओ ! तथागत को भिक्षु-संघ के रहते भी सार वाले सारिपुत्र और महामौद्गल्यायन का परि-निर्वाण है । सो वह भिक्षुओ! कहाँ से मिले। जो कुछ उत्पन्न होने वाला है, सब नष्ट होने वाला है। इसलिये भिक्षुओ! आत्मदीप, आत्म-शरण, अनन्यशरण होकर विहरो, धर्म-दीप, धर्म-शरण, अनन्यशरण होकर विहरो।" शास्ता का मानवीय रूप और साथ साथ उनका बुद्धत्त्व यहाँ स्पष्टतम रूप में दिखाई पड़ता है। बुद्धधर्म की साधना इसी जन्म की साक्षात् अनुभूति के लिये है, यह तथ्य इस निकाय के संवहुल-सुत्त से भली प्रकार हृदङ्गम किया जा सकता है। एक ब्राह्मण आकर भिक्षुओं से कहता है “आप लोग वर्तमान को छोड़कर कालान्तर की ओर दौड़ रहे हैं। इस से तो यही अच्छा हो कि आप मानुष कामों का भोग करें।" भिक्षु उत्तर देते हैं “ब्राह्मण ! हम वर्तमान को छोड़कर कालान्तर की चीज के पीछे नहीं दौड़ रहे। बल्कि कालान्तर की चीज को छोड़कर ब्राह्मण ! हम तमान के पीछे दौड़ रहे हैं । ब्राह्मण ! भगवान् ने कामों को बहुत दुःख वाले, बहुत प्रयास वाले, बहुत दुष्परिणाम वाले, कालिक (कालान्तर) कहा है। किन्तु यह धर्म तो सांदृष्टिक के (वर्तमान में फल देने वाला) अ-कालिक, . यहीं साक्षात्कार किया जाने वाला, तह तक पहुँचाने वाला और प्रत्येक शरीर में अनुभव करने योग्य है।" अत्त-दीप सुत्त में हम आत्म-निर्भर होने का उपदेश पाते हैं, जिसकी पुनरावृत्ति भगवान् ने अनेक स्थलों पर की है और जो उनके धर्म के स्वरूप को समझने के लिये अति आवश्यक है। भगवान सब को प्रव्रज्या का ही उपदेश नहीं देते थे। बल्कि गृहस्थाश्रम में रह कर भी वे प्रमाद-रहित जीवन की सम्भावना मानते थे । ऐसा ही उन्होंने राजों (मकान बनाने वाले मजदूरों) से इसी निकाय के थपति-सुत्त में कहा भी है “स्थपतियो ! गृहवास बाधापूर्ण है, मल का आगमन-मार्ग है । प्रव्रज्या खुली जगह है। किन्तु स्थपतियो ! तुम्हारे लिये अप्रमाद से रहना ही उपयुक्त है।" ऐसा मालूम पड़ता है भगवान् के इस अप्रमाद-उपदेश को स्मरण कर के ही अशोक अपनी प्रजाओं को इतनी पुनरावृत्ति के साथ अ-प्रमाद, का जीवन बिताने को कहता है।' संयुत्त-निकाय में बुद्धकालीन भारत में प्रचलित धार्मिक सम्प्रदायों और उनके प्रधान आचार्यों एवं बुद्ध और १. देखिये आगे दसवें अध्याय में अशोक के अभिलेखों का विवरण । .
SR No.010624
Book TitlePali Sahitya ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatsinh Upadhyaya
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2008
Total Pages760
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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