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________________ [ ६० ] अनुयोगविषयक ग्रन्थोंमें ही नहीं बल्कि जैन न्याय तथा भारतवर्षीय तत्कालीन समग्र दार्शनिक सिद्धांतों की चर्चावाले ग्रन्थोंमें भी बहे हुए हैं । इतना करके ही उनकी प्रतिभा मौन न हुई, उसने योगमार्ग में एक ऐसी दिशा दिखाई जो केवल जैन योगसाहित्य में ही नहीं बल्कि आर्यजातीय संपूर्ण योगविषयक साहित्य में एक नई वस्तु है । जैनशास्त्र में आध्यात्मिक विकासके क्रमका प्राचीन वर्णन चौदह गुणस्थानरूपसे, चार ध्यान रूपसे और बहिरात्म आदि तीन अवस्था के रूपसे मिलता है । हरिभद्रसूरिने उसी आध्यात्मिक विकासके क्रमका योगरूपसे वर्णन किया है । पर उसमें उन्होंने जो शैली रक्खी है वह अभीतक उपलब्ध योगविषयक साहित्य में से किसी भी ग्रंथमें कमसे कम हमारे देखने में तो नहीं आई है । हरिभद्रसूरि अपने ग्रन्थोंमें अनेके योगियोंका नामनिर्देश करते हैं । एवं योगविषयक ग्रन्थों का उल्लेख करते विषयक - पञ्चवस्तु, धर्मविन्दु आदि ३, धर्मकथानुयोगविषयकसमराइचकहा आदि ४ ग्रन्थ मुख्य है । १ अनेकान्तजयपताका, पड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्त्तासमुचय आदि । २ गोपेन्द्र ( योगबिन्दु श्लोक. २००) कालातीत ( योगविन्दु श्लोक ३००) । पतञ्जलि, भदन्तभास्करवन्धु, भगवदन्त ( त ) बादी ( योगदृष्टि० श्लोक १६ टीका ) | ३ योगनिर्णय आदि ( योगदृष्टि० श्लोक १ टीका ) |
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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