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________________ [३७] यहां एक बात खास ध्यान देनेके योग्य है, वह यह कि यद्यपि चैदिक साहित्यमें अनेक जगह हठयोगकी प्रथाको अग्राह्य कहाँ है. तथापि उसमें हठयोगकी प्रधानतावाले अनेक ग्रन्थोंका और मागौंका निर्माण हुआ है। इसके विपरीत जैन और वौद्ध साहित्यमें हठयोगने स्थान नहीं पाया है, इतना ही नहीं, बल्कि उसमें हठयोगका स्पष्ट निषेध भी किया है। १ उदाहरणार्थःसतीषु युक्तिप्वेतासु हठानियमयन्ति ये । चेतस्ते दीपमुत्सृज्य विनिम्नन्ति तमोऽजनैः ॥३७॥ विमूढा कर्तुमुद्युक्ता ये हठाञ्चेतसो जयम् । ते निबध्नन्ति नागेन्द्रमुन्मत्तं बिसतन्तुभिः ॥ ३८॥ चित्तं चित्तस्य वाऽदूरं संस्थितं स्वशरीरकम् । साधयन्ति समुत्सृज्य युक्ति ये तान्हतान् विदुः ॥३६॥ ___ योगवाशिष्ठ-उपशम प्र० सर्ग ६२. २ इसके उदाहरणमें वौद्ध धर्ममें बुद्ध भगवान्ने तो शुरुमें कष्टप्रधान तपस्याका आरंभ करके अंतमे मध्यमप्रतिपदा मार्गका स्वीकार किया है-देखो बुद्धलीलासारसंग्रह. जैनशास्त्रमे श्रीभद्रवाहुत्वामिने आवश्यकनियुक्तिमे " ऊसासंण णिरुभइ " १५२० इत्यादि उक्तिसे हठयोगका ही निराकरण किया है। श्रीहेमचन्द्राचार्चने भी अपने योगशास्त्रमें
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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