SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [३१] आगम और नियुक्तिकी अपेक्षा कोई अधिक वात नहीं है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणका ध्यानशतक आगमादि उक्त ग्रन्थोंमे वर्णित ध्यानका स्पष्टीकरण मात्र है, यहां तकके योगविषयक जैन विचारोंमें आगमोक्त वर्णनकी शैली ही प्रधान रही है। पर इस शैलीको श्रीमान् हरिभद्रसूरिने एकदम बदलकर तत्कालीन परिस्थिति व लोकरुचिके अनुसार नवीन परिभाषा दे कर और वर्णनशैली अपूर्वसी बनाकर जैन योग-साहित्यमें नया युग उपस्थित किया। इसके सबूतमें उनके बनाये हुए योगविन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविशिका, योगशतक और पोडशक ये ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इन ग्रन्थोंमें उन्होंने सिर्फ जैन-सागांनुसार योगका वर्णन करके ही संतोप नहीं माना है, किन्तु पातज लयोगसूत्रमें वर्णित योगप्रक्रिया और उसकी खास परिभाषाओं के साथ जैन संकेतोंका मिलान भी किया है। योगदृष्टिसमुच्चयमें १ देखो हारिभद्रीय मावश्यक वृत्ति प्रतिक्रमणाध्ययन पृ०५८१ २ यह ग्रन्ध जैन ग्रन्थावलिमे उल्लिखित है पृ० ११३ । ३ समाधिरेष एवान्यैः संप्रज्ञातोऽभिधीयते । सम्यकप्रकर्षरूपेण वृत्त्यर्थज्ञानतस्तथा ।। ४१८ ॥ असंप्रज्ञात एपोऽपि समाधिर्गीयते परैः। निरुद्धाशेपवृत्त्यादितत्त्वरूपानुवेधतः ॥४२० ॥ इत्यादि. योगविन्दु ।
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy