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________________ [१३३] खुलासा-मुख्य बात चैत्यवन्दनमें स्थानादि योग पटानेकी चल रही थी, इसमें प्रसंगवश तीर्थोच्छेद क्या बस्तु है ? और तीर्थरक्षाके लिए विधिप्ररूपणाकी कितनी आवश्यकता है? इत्यादि प्रासंगिक विषयकी चर्चा भी की गई। अब मूल बातको समाप्त करते हुए ग्रन्थकारने अन्तमें यही कहा है कि चैत्यवंदन प्रादि क्रिया धर्मका कलेवर अर्थात् नाझरूप मात्र है। उसकी आत्मा तो स्थान, वर्ण आदि पूचोक्त योग ही हैं । यदि उक्त योगोंमें प्रयत्नशील रह कर कोई भी क्रिया की जाय तो वह सब क्रिया शुद्ध, शुद्धतर, शुद्धतम संस्कारोंकी पुष्टिका कारण हो कर सदनुष्ठानरूप होती है और अन्तमें कर्मक्षयका कारण बनती है ॥ ___ सदनुष्ठानके भेदोंको दिखाते हुए उसके अन्तिम भेद अर्थात् असंगानुष्ठानमें अन्तिम योग (अनालम्बनयोग )का समावेश करते हैं___गाथा १८--प्रीति, भक्ति, वचन और असंगके सम्बन्धसे यह अनुष्ठान चार प्रकारका समझना चाहिए। चारमेंसे असङ्गानुष्ठान ही चरम अर्थात् अनालम्बन योग है । खुलासा-भावशुद्धिके तारतम्य ( कमीवेशी ) से एक ही अनुष्ठानके चार भेद हो जाते हैं । वे ये हैं-(१) प्रीतिअनुष्ठान, (२) भक्ति-अनुष्ठान, (३) वचनानुष्ठान, मोर (४) असङ्गानुष्ठान ।
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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