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________________ [ १३०] होता है, इसलिए नीच आशयवाले पात्रको शास्त्र सुनाने में उपदेशक ही अधिक दोपका पात्र है । यह नियम है कि पाप करनेवालेकी अपेक्षा पाप करानेवाला ही अधिक दोपभागी होता है । अतएव योग्यपात्रको शुद्ध शास्त्रोपदेश देना और स्वयं शुद्ध प्रवृत्ति करना यही तीर्थरक्षा है, अन्य सब बहाना मात्र है ।। उक्त चर्चा सुन कर मोटी बुद्धिके कुछ लोग यह कह उठते हैं कि इतनी बारीक वहसमें उतरना वृथा है, जो बहुतोंने किया हो वही करना चाहिए, इसके सबूतमें " महाजनो येन गतः स पन्थाः " यह उक्ति प्रसिद्ध है। आज कल बहुधा जीतव्यवहारकी ही प्रवृत्ति देखी जाती है। जबतक तीर्थ रहेगा तबतक जीतव्यवहार रहेगा इसलिए उसीका अनुसरण करना तीर्थ रक्षा है । इस कथनका उत्तर ग्रन्थकार देते हैं___ गाथा १६–लोकसंज्ञाको छोड कर और शास्त्रके शुद्ध रहस्यको समझ कर विचारशील लोगोंको अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धिसे शुद्ध प्रवृत्ति करना चाहिए । खुलासा-शास्त्रकी परवा न रख कर गतानुगतिक लोकप्रवाहको ही प्रमाणभूत मान लेना यह लोकसंज्ञा है । लोकसंज्ञा क्यों छोडना ? महाजन किसे कहते हैं और जीतव्यवहारका मतलब क्या है ? इन बातोंको समझानेके लिए
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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