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________________ [१२४] अननुष्ठान समझना चाहिये । इसी तरह चैत्यवंदन करते समय " ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं बोसिरामि" इन पदोंसे स्थान, मौन, और ध्यान आदिकी प्रतिज्ञा की जाती है। ऐसी प्रतिज्ञा करनेके बाद स्थान, वर्ण आदि योगका भंग किया जाय तो वह चैत्यवन्दन महामृपावाद होनेसे निष्फल ही नहीं बल्कि कर्मबंधका कारण होनेसे अनिष्टफलदायक अतएव अननुष्ठान है ।। स्थान, वर्ण आदि योगोंका सम्बन्ध होनेपर भी जो चैत्यवन्दन स्वर्ग आदि पारलौकिक सुखके उद्देश्यसे किया जाता है वह गरानुष्ठान और जो धन, कीर्ति आदि ऐहिक सुखकी इच्छासे किया जाता है वह विपानुष्ठान है । गरानुष्ठान और विषानुष्ठान मृपावादरूप है, क्योंकि पारलौकिक और ऐहिक सुखकी कामनासे किये जानेके कारण उनमें मोक्षकी प्रतिज्ञाका इस प्रकार अननुष्ठान, गरानुष्ठान और विपानुष्ठान ये तीनों चैत्यवंदन हेय हैं। इसी कारणसे योग्य अधिकारिओंको ही चैत्यवंदनसूत्र सिखानेको शास्त्रमें कहा गया है । इस चैत्यवंदनके उदाहरणसे अन्य सब क्रियाओं में सदनुष्ठान और असदनुष्ठानका रूप स्वयं घटा लेना चाहिये। चैत्यवन्दनके लिए योग्य अधिकारी कौन हैं यह दिखाते हैं स्पष्ट मा
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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