SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १२० ] भी असंख्य प्रकार हैं । इस विविधताका कारण क्षयोपशमभेद अर्थात् योग्यताभेद है। यहाँ भव्यप्राणिका मतलब अपुनबंधक तथा सम्यग्दृष्टि आदिसे है ॥ इच्छा आदि योगोंका कार्यगाथा ८-इन इच्छा आदि उक्त चारों योगोंके कार्य क्रमसे अनुकम्पा, निर्वेद, संवेग और प्रशम है ॥ खुलासा-अनुकम्पा आदिका स्वरूप इस प्रकार है(१) दुःखित प्राणिोंके भीतरी और बाहरी दुःखोंको यथाशक्ति दूर करनेकी जो इच्छा वह अनुकम्पा है । (२) संसाररूप कैदखानेकी निःसारता जान कर उससे विरक्त होना निर्वेद है । (३) मोक्षकी अभिलाषाको संवेग कहते हैं । (४) काम, क्रोधकी शान्ति प्रशम है ॥ ____ अब स्थान आदि योगभेदोंको दृष्टांतमें घटा लेनेकी सूचना करते हैं गाथा 8-इस प्रकार योगका सामान्य और विशेष स्वरूप तो दिखाया गया परंतु उसकी जो चैत्यवंदनरूप दृष्टांतके साथ स्पष्ट घटना है अर्थात् उसको चैत्यवंदनमें जैसे विभाग-पूर्वक उतार कर घटाया जा सकता है उसे ठीक ठीक तत्त्वज्ञको समझ लेना चाहिये।। अव चैत्यवन्दनमें योग घटा देते हैं
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy