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________________ [११४] योगविंशिकाका सार. गोथा १ - मोक्ष - प्राप्तिमें उपयोगी होनेके कारण यद्यपि सब प्रकारका विशुद्ध धर्म - व्यापार योग ही है तथापि यहाँ विशेष रूप से स्थान आदि सम्बन्धी धर्म - व्यापारको ही योग जानना चाहिए || खुलासा — जिस धर्म - व्यापार में प्रणिधान, प्रवृत्ति, विजय, सिद्धि और विनियोग इन पॉच भावका सम्बन्ध हो वही धर्म-व्यापार विशुद्ध है । इसके विपरीत जिसमें उक्त भावका सम्बन्ध न हो वह क्रिया योगरूप नहीं है । उक्त प्रणिधान आदि भावका स्वरूप इस प्रकार है " ( १ ) अपने से नीचेकी कोटीवाले जीवोंके प्रति द्वेप न रख कर परोपकारपूर्वक अपनी वर्तमान धार्मिक भूमिकाके कर्तव्य में सावधान रहना यह प्रणिधान है । ( २ ) वर्तमान धार्मिक भूमिकाके उद्देश्यसे किया जानेवाला और उसके उपायकी पद्धति से युक्त जो चञ्चलतारहित तीव्र प्रयत्न वह प्रवृत्ति है । ( ३ ) जिस परिणामसे धार्मिक प्रवृत्तिमें विघ्न नहीं आते वह विघ्न - जय है | विघ्न तीन तरह के होते हैं, १ भूख, प्यास आदि परीपह, २ शारीरिक रोग और ३ मनो
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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