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________________ होंगी। अस्तु जो कुछ हो पर अब भी इतना नौभाग्य है कि मूल मूल वीसों विशिकाएं कुछ खंडित रूपमें, कुछ अशुद्धरूपमें भी उपलब्ध है । छाया सहित उनको प्रकाशित करने का तथा हो सका तो साथ में हिंदी सार देनेका हमारा विचार है। हमारा निवेदन है कि जिनके पास उक्त सब विशिकाए या उनको अपूर्ण पूर्ण टीकापे हों वे हमें सूचित करें; क्योंकि यह सार्वजनिक संपत्ति है एकवार जैसा छपा प्रायः फिर वैसा ही रहता है। छपनेके बाद लिखित प्रतियोको कौन देखता है। इस दशामें छपानेसे पहले अधिकसे अधिक सामग्रीके द्वारा संशोधन आदि करना यही सच्ची श्रुत-भक्ति है। हमारा काम प्राप्त सामग्रीका उपयोग करना मात्र है। इस लिए पुण्यशाली महानुभावोंका यह कर्तव्य है कि वे लिखित प्रति आदि अपने पास जो कुछ साधन हो उसको देकर प्रकाशकके निःस्वार्थ कार्यको सरल करें। पहले इस पुस्तकको पाँच सौ नकले नीकलवाने का इरादा था पर पीछे हजार नकले नीकलवानेका विचार हुआ। फिन्तु, उस समय एक तरहके उतने कागज न थे और न तुरत मिल ही सकते थे, इसलिए निरुपाय होकर दो किसमके कागजों पर पोच तो पांच सौ नकलें नीकलवानी पडी है। फिर भी धारणासे कुछ अधिक मॅटर बढ जाने के कारण और कई दिनों तक कौशीश करने पर भी एक जातिके मोटे अॅन्टिक कागज न मिलनेते अन्तम लाचार होकर करीब दो फर्मे दूसरी किममके मोटे कागज पर छपवाने पडे हैं । अस्तु जो कुछ हो बाद्य कलेवरमें थोडी सी विभिन्नता हो जाने पर भी पुस्तकका आन्तरिक स्वरूप एक ही प्रकारका है जिस पर वस्तुग्राही पाठक संतोष कर लेवे।
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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