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________________ ( १० ) विहानको कमी नहीं रही हैं; खास कर वैदिक विद्वान् तो सदाहीसे उच्च स्थान लेते आये हैं. विद्या मानों उनकी बपौती ही है पर इसमें शक नहीं कि कोई बौद्ध या कोई वैदिक विहान आज तक ऐसा नहीं हुआ है जिसके ग्रन्थके अवलोकन से यह जान पढे कि वह वैदिक या बौद्ध शास्त्रके उपरान्त जैन शाखका भी वास्तविक गहरा और सर्वव्यापी ज्ञान रखता हो । इसके विपरीत उपाध्यायजीके ग्रन्थोंको ध्यानपूर्वक देखनेवाला कोई भी बहुश्रुत दार्शनिक विद्वान् यह कहे बिना नहीं रहेगा कि उपाध्यायजी जैन थे इसलिए जैनशास्त्रका गहरा ज्ञान तो उनके लिए सहज था पर उपनिषद्, दर्शन आदि वैदिक ग्रन्थका तथा बौद्ध ग्रन्थका इतना वास्तविक, परिपूर्ण और स्पष्ट ज्ञान उनकी अपूर्व प्रतिभा और काशी मेनका ही परिणाम है। हिंदी सारका उद्देश्य ग्रन्थका महत्त्व, उसकी उपयोगिता पर निर्भर है। उपयोगिताकी मात्रा लोकप्रियताकी मासे निश्चित होती है। अच्छा ग्रन्थ होने पर भी यदि सर्व साधारण में उसकी पहुँच न हुई तो उसकी लोकप्रियता नहीं हो सकती। जो अच्छा ग्रन्थ जितने ही प्रमाणमें अधिक लोकप्रिय हुआ देखा जाता है उसको लोगों तक पहुँचानेको उतनी ही अधिक चेष्टा की गई होती है। गीताका उतना अधिक प्रचार कभी नहीं होता यदि विविध भाषाओं में विविध रूपसे उसका उल्था न होता, अतएव यह सावीत है कि शास्त्रीय भाषा के ग्रंथोंको अधिक उपयोगी और अधिक लोकप्रिय बनानेका एक मात्र उपाय लौकिक भाषाओंमें उनका परिवर्तन करना है । भारत वर्षके साहित्यको भारतके अधिकांश भागमें फैलानेका साधन उसको राष्ट्रीय हिंदी भाषा में परिवर्तित करना यही है । इसी कारण प्रस्तुत पुस्तकर्मे मूल मूल योगसूत्र
SR No.010623
Book TitlePatanjal Yogdarshan tatha Haribhadri Yogvinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1922
Total Pages249
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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