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________________ विष्णु को एक उपाय सूझा | उन्होंने शंकर का पीछा किया और अवसर पाकर धीरे २ सती के समस्त अगों को काट दिया। सती के ये अंग जहां २ गिरे वहीं पर शंकर की अर्धाङ्गिनी के रूप में देवी का आविर्भाव हुआ। और शंकर भी उन स्थानों में अनेक रूप से प्रतिष्ठित हुये । ज्वालामुखी पर्वत के ऊपर सती की जिह्वा (जीभ ) गिरी और वह सती के देह से पहले निकले हुये आलोकमय तेज के साथ अग्निज्वाला के रूप में परिणत होगई। जिन इक्यावन स्थानों पर सती के अवयव उस समय गिरे वे ही बाद में शक्तिपीठ' के नाम से प्रसिद्ध होगये । काव्यगत-चमत्कार-कवि ने जहां एक ओर ज्वालादेवी के सहज सुन्दर पर्वतीय दृश्यों का संयत और भावपूर्ण प्राकृतिक वर्णन किया है वहां दूसरी ओर उनके अलौकिक प्रभाव का भी हृदय-ग्राही चित्रण किया है। यही नहीं, पौराणिक धरातल से ऊपर उठकर, कविजनोचित हृदय से, भक्तिरस की धारा प्रवाहित करते हुये जिस अनोखी सूझ-बूझ के साथ अपने भावोद्गार प्रकट किये हैं, वे बहुत ही मार्मिक हैं। यहां उदाहरण के लिये केवल दो श्लोक उद्ध त किये जाते 'मन्ये विहारकुतुकेषु शिवानुरूपं रूपं न्यरूपि खलु यत्सहसा भवत्या । तत्सूचनार्थमिह शैलवनान्तराले ज्वालामुखीत्यभिधया स्फुटमुच्यसेऽद्य ।।४।। सत्या ज्वलत्तनुसमुद्गतपावकार्चि र्वालामुखीन्यभिमृशन्ति पुराणमिश्रा । श्रास्तां, वयं तु भजतां दुरितानि दग्धु . ज्वालात्मना परिणता भवतीति विद्मः ॥५॥ (ईहाष्टक श्लोक. ५.६.) भावार्थ-शिव अग्निरूप हैं, इसलिये उनको त्रिलोचन कहा जाता है। आप शिव की अर्धाङ्गिनी कहलाती हैं, अतः उनके साथ अपनी एकरूपता प्रमाणित करने के लिये ही मानों आप पर्वत और जगल के मध्य में ज्वालामुखी नाम से प्रसिद्ध हुई हैं। इसीलिये 'अग्नीसोमात्मकं जगत् ।' यह उक्ति चरितार्थ होती है।
SR No.010620
Book TitleDurgapushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Gangadhar Dvivedi
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1957
Total Pages201
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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