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________________ किन्तु इनमें एक आश्चर्यजनक विशेषता यह देखी जाती है कि ये ज्योति शिखायें प्रातःकाल श्यामवर्ण की, मध्याह्न में रक्त और सायंकाल पीत एवं रक्तवर्ण की होजाया करती हैं। इस प्रकार दिन में तीन बार इनके रंग मे परिवर्तन होता रहता है। दीपशिखा के समान उक्त ज्योतियां शान्तमुद्रा मे प्रकाशित दिखाई देती हैं। इनमें उग्रता का कभी लेशमात्र भान नहीं होता। कुछ समय तक विज्ञानवेत्ताओं की यह धारणा बनी हुई थी, कि इसके भूगर्भ मे कहीं ज्वालामुखी छिपा हुआ है और इसीलिए इस ढंग की ज्योतिकिरणों का प्रस्फुटन होता रहता है। किन्तु वर्तमान में आवश्यक अपेक्षित परीक्षण के बाद यह धारणा भ्रान्त और निर्मूल सिद्ध हुई है। ____ ज्वालामुखी का उद्गम स्थल पर्वत का शिखर भाग माना जाता है, किन्तु उक्त मन्दिर के पर्वत की उपत्यका (तलहटी) में स्थित होने से यहां इस आशङ्का का कोई समन्वय नहीं बैठता । इसके अतिरिक्त यह निर्विवाद है कि ज्वालामुखी से लावा निकलता रहता है, और वह दुर्गन्धयुक्त रहा करता है। किन्तु इन ज्योतियों में इस प्रकार की दुर्गन्ध का कहीं नाम-निशान तक नहीं पाया जाता । इसी के साथ यह भी कुछ कम आश्चर्य की बात नहीं, कि इन शिखाओं से किसी प्रकार की कालिख उत्पन्न होती नहीं देखी जाती । सन् १९०५ मे अकस्मात् यहां भूकम्प का एक प्रवल आक्रमण भी हुआ था, किन्तु उससे मन्दिर को कोई क्षति नहीं पहुंची । फलतः विज्ञानवादी इस संवन्ध में अपना चाहे जो दृष्टिकोण क्यों न बनावें, वास्तव में यहां की इन सब घटनाओं को देखकर यही कहा जासकता है कि यह सव ज्वालाजी की कृपा और महिमा का ही फल है। प्राचीन किवदन्ती-ज्वाला देवी के सम्बन्ध मे पंजाव प्रान्त मे एक किंवदन्ती बहुत समय से यह चली आती है कि किसी समय सुप्रसिद्ध मुगल सम्राट अकवर ने इन ज्योति शिखाओं को वन्द करा देने का विचार किया, और कुण्ड के ऊपरी भाग में लोहे के तवे जडवा दिये। किन्तु ऐसा किये जाने पर भी ज्योतिशिखायें उस लोह के कृत्रिम आवरण का भेदन कर पुनः अपने पूर्वरूप में प्रकट होगई। इस पर सम्राट अकबर को अपनी भूल का ज्ञान हुआ और इस भूल के प्रायश्चित्त स्वरूप उसने सवा मन का एक स्वर्ण-छत्र उपहार स्वरूप देवी को चढाया, किन्तु भगवती ने उसकी यह भेंट स्वीकार नहीं की, और वह सोने का छत्र एक साधारण धातु के रूप में बदल गया, जो
SR No.010620
Book TitleDurgapushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Gangadhar Dvivedi
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1957
Total Pages201
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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