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________________ १३. वास्तव मे विपन परिस्थितियों मे उलझे हुए मानव हृदय को बडी गहरी चोट लगती है, और उस अवस्था में उसके लिए माता की दया का ही एक मात्र अवलंब शेष रह जाता है । उसकी शरण में पहुँच जाने पर हृदय को शांति मिलना स्वाभाविक होता है, इधर व्यवहार दशा में भी बालक के कष्टों और ऊंचे नीचे अभाव-अभियोगों को स्नेहपूर्वक सुनना और उचित आश्वासन देकर संतुष्ट करना माता का स्वभाव-सिद्ध गुण हुआ करता है । १५ - आत्मसमर्पण- इसमें कवि ने जीवन में घटित होने वाले स्वयं के प्रमादों और मनुष्य सुलभ विवशताओं का लेखा-जोखा उपस्थित करते हुए भगवती की सहज सुलभ करुणा के प्रति हृदय का स्वाभाविक आकर्षण, उसकी छत्रच्छाया में सुरक्षा की स्थिरता, और उसके अकृत्रिम वात्सल्य का गुणानुवाद करते हुए, अपनी कमियों की ओर संकेत किया है और अनन्यगतिक होकर माता के चरणों मे आत्मसमर्पण कर दिया है । साथ ही यह अभिलाषा व्यक्त की है, कि उसका यह स्नेह बन्धन कभी टूटने न पावे । द्वितीय- विश्राम | १. दुर्गाप्रसादाष्टकम् - इसमें कामरूप, पूर्णगिरि आदि, तन्त्रों में वर्णित चारों प्रधान शक्ति पीठों की मूलाधार आदि कतिपय चक्रों में की जाने वाली भावना- प्रधान उपासना का मार्गदर्शन करते हुए आगमोक्त कालीकुल और श्रीकुल के अन्तर्गत परिगणित होने वाली विभिन्न शक्तियों के आविर्भाव और उनकी शास्त्र सम्मत मौलिक एकता का निर्देश है । इस प्रसंग से तन्त्र शास्त्र में वर्णित मेधा सामाज्यदीक्षा आदि कुछ प्रमुख दीक्षाओं का संकेत-रूप में निदर्शन और मूलशक्ति के साथ उनका श्रभेद बतलाया गया है । पराशक्ति की प्रधानता और उसके द्वारा स्थूल और सूक्ष्म दोनों उपासनाओं का उद्गम और उनके पारमार्थिक रूप का भी परिचय है। संक्षेप में, इसके भीतर श्रागम के कुछ रहस्यपूर्ण सिद्धान्तों का भी सूत्ररूप से उल्लेख हुआ है, जो गुरुगम्य हैं । २. नव दुर्गास्तव - दुर्गा सप्तशती के देवीकवच में निर्दिष्ट नवरात्र की में प्रधानता रखने वाली शैलपुत्री आदि नवदुर्गाओं की यह स्वतन्त्र स्तुति पूजा
SR No.010620
Book TitleDurgapushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Gangadhar Dvivedi
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1957
Total Pages201
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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