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________________ सार्वभौम मान्यता अथवा स्थिरता की दृष्टि से वे अधिक टिकाऊ नहीं बन पाये। कारण यह था कि सैद्धान्तिक वातों में कोई मौलिक अन्तर न होने से अधिकांश में असहिष्णुता की भावना तथा पृथक् वर्गीकरण की दुष्प्रवृत्ति ही इसके मूल में निहित थी। और वह समय पाकर धीरे २ स्वतः शिथिल पड़ती गई । अन्ततः अद्वैतवादी विचारधारा का ही दूरदर्शी बुद्धिजीवियों ने आश्रय लिया। जो कि एकता की अनुभूति के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी थी। इस दृष्टि से वेदान्तियों के जीव ब्रह्म की एकता का नारा कोरा शुष्क कलह न होकर अद्वैतवाद की वास्तविकता किंवा यथार्थता का ही निदर्शन था। पचधारा के अन्तर्गत शिव, शक्ति और विष्णु की उपासना के क्षेत्र में प्रमुखता पाई जाती है, और हमारा स्तोत्र साहित्य अधिकांश मे इन्हीं से सम्बद्ध है। जैसा कि पहले कहा गया है सुप्रसिद्ध काश्मीरक कवि जगद्धर भट्ट की 'स्तुति कुसुमाञ्जलि' तथा शंकराचार्य की 'सौन्दर्यलहरी' आदि इसके सुदृढ स्तम्भ हैं । आर्ष एवं पौरुप स्तोत्रों मे अपनी २ रुचि के अनुसार इन देवताओं के ऐश्वर्य की गाथा अथवा यों कहिये कि गुणानुवाद की त्रिवेणी प्रवाहित हुई है। दुर्गापुष्पाञ्जलि प्रस्तुत दुर्गापुष्पाञ्जलि प्रधान रूप से भगवती त्रिपुरसुन्दरी को समर्पित पुष्पाञ्जलि है । आगम की परिभाषा में त्रिपुर-सुन्दरी का ही दूसरा नाम दुर्गा भी माना गया है। अतएव इनके मौलिक रूप में कोई अन्तर न होकर केवल संज्ञा मात्र का भेद है । यही त्रिगुणात्मिका शक्तियों की समष्टि के रूप मे 'श्रीविद्या' भी कहलाती हैं। यहां इन्हीं 'श्री विद्या' अथवा त्रिपुर सुन्दरी के अर्थ में दुर्गा शब्द प्रयुक्त हुआ है। इस प्रसंग मे यह बतला देना आवश्यक होगा कि पुष्पाञ्जलि शब्द का प्रयोग भी यहां अपने आगमोक्त अर्थ मे किया गया है। जो कि एक नियत और भावना विशेष का द्योतक है। पुष्पाञ्जलि शब्द की सार्थकता भी यहां इसी अर्थ मे हैं। यों इसका प्रयोग सामान्य रूप से जिस अर्थ मे किया जाता है, वह अर्थ भी इसमें निहित हो जाता है। आगम के नियमानुसार श्री विद्या के उपासक बहिर्याग के समय नौ पुष्पाञ्जलियां समर्पित करते है, उस नियम का निर्वाह करते हुए पुष्पाञ्जलिकार ने इन स्तोत्रों की श्लोक संख्या भी नौ ही रक्खी है। और इस प्रकार आगमोक्त प्रणाली का पूरा २ पालन किया गया है। इसका प्रथम विश्राम ही
SR No.010620
Book TitleDurgapushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Gangadhar Dvivedi
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1957
Total Pages201
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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