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________________ (१६) का प्रयास करती हैं । वस्तुओं के पारस्परिक भौतिक और मानसिक विघटन - संघटन में यही एक से अनेक और अनेक से एक हो जाने की इच्छा मूलकारण है । इसी इच्छा का नाम शक्ति है । एक से अनेक और फिर अनेक से एक होने की इच्छा जिस सर्वोच्च सत्ता की है, उसी के आधार पर यह विश्वव्यापार चल रहा है । उसी सत्ता का सहस्त्रों नामों से बड़े ज्ञानी, ध्यानी और पण्डित स्तवन करते आये हैं । ऐसे स्तवन से मन धीरे धीरे निर्मल होता है और उस में मूलशक्ति के प्रति प्रीति (कर्पण) उत्पन्न होती है जिसके द्वारा इस संसार से निस्तार अथवा पुनः उसी सर्वोच्च सत्ता में लय सम्भव है । ' पृथक् तत्वों का पारस्परिक सम्बन्ध एवं आकर्षण शक्ति के अनेक रूपों में से कामशक्ति पर आधारित है । इस प्राकृतिक शक्ति का समस्त जीवित प्राणियों में निवास है । इसके द्वारा असीम सुख एवं अधिक से अधिक पीड़ा दोनों ही उत्पन्न हो सकते हैं । प्राचीन महान ऋषि मुनियों ने इसे पशु प्रकृति कहा है और इस पर नियन्त्रण रखते हुए संयमित जीवन पर वल दिया है । यही इस शक्ति के द्वारा लाभान्वित होने का उपाय बताया गया है । प्रत्येक सामने आने वाले शक्ति के स्वरूप में मनुष्य सर्वसत्तात्मिका देवी का दर्शन करे और उसमें पूज्यभाव को विकसित करे । इस से स्वात्मशक्ति और प्रतिभा दोनों का ही विकास होता है । नारीमात्र में देवीभावना का ग्रहण ही कुत्सित भावनाओं और अनिष्टकारी परिणामों से सुरक्षा प्राप्त करने के लिए दुर्भेद्य कवच है । कवच का यही रहस्य है । "" पटल में पूजा, विधि, मन्त्र और वीजाक्षर के समस्त समूहों का रहस्य ग्रथित रहता है, उस के अध्ययन से सभी गूढ़ रहस्य स्वयं प्रकाशित होकर साधक के सामने जाते हैं। पूजापद्धति से मानसिक व्यापार (क्रियाकलाप ) में एकाग्रता एवं तन्मयता के साथ साथ एक शुचि व्यवस्थाभाव का उदय होता है जिससे निर्मल हुए मन में देवतानुशासन के साथ आत्मानुशासन की भावना का विकास होता है। इस आत्मशासन की प्रतिष्ठा से जीवनचर्या में एक अलौकिक सफलता की कुञ्जी साधक को प्राप्त होती है । अपमृत्युनिवारण और ऐहिक आमुष्मिक दुरितक्षय तो देवता के सम्प्रसाद से स्वयंसिद्ध हैं ही । 9. २. ३. 2. स्तोकस्तोकेन मनसः परमप्रीतिकारणात् । स्तोत्र संतरणाद्देवि स्तोत्रमित्यभिधीयते ॥ कुलार्णवतन्त्रे १७ उ० ॥. कत्र ग्रहण इत्यस्माद्धातोः कवचसम्भवः । कालीतन्त्रटीकायाम् पृ० ११ | पाटयति दीप्यते यः सः पटलः ग्रन्थः । पट् कलच् । हलायुधे । पूर्वजन्मातुशमनादपमृत्युनिवारणात् । . • सम्पूर्ण फलदानाच्च पूजेति कथिता प्रिये ! कुलार्णवतन्त्रे १७ उ०
SR No.010619
Book TitleBhuvaneshvari Mahastotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Gopalnarayan Bahura
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages207
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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