SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ भट्टारक संप्रदाय आ. जिनसेन की दूसरी महत्त्वपूर्ण कृति आदिपुराण है जो महापुराण का पूर्वार्ध है । भगवान् ऋषभदेव और चक्रवर्ती भरत के इस पुराण के ४३ पर्व लिखने के बाद आप का स्वर्गवास हुआ था। इस पुराण के तीसरे पर्व में आप ने उस के उपदेश की परंपरा का विस्तार से वर्णन किया है जिस से प्रतीत होता है कि आप की रचना का मुख्य आधार कवि परमेश्वर रचित वागर्थसंग्रह पुराण रहा था [ ले. ३ ] । आदिपुराण बहुत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है । पुराण, काव्य, धर्मशास्त्र, योगशास्त्र आदि का इस में सुंदर समन्वय मिलता है। समकालीन समाजजीवनका नेतृत्व करने की क्षमता उस में पद पद पर व्यक्त हुई है। कालिदास विरचित मेघदूत के चरणों की समस्यापूर्ति कर के भगवान् पार्श्वनाथ की केवलज्ञान प्राप्ति का वर्णन करनेवाला पार्श्वभ्युदय काव्य आ. जिनसेनने गुरुबंधु विनयसेन की प्रेरणा से लिखा । तब अमोघवर्ष सम्राट थे [ले. ४] । आ. जिनसेन की अधूरी कृति महापुराण उन के शिष्य गुणभद्र ने पूरी की ले. ७ ] । आदिपुराण के ५ और उत्तरपुराण के ३० पर्व इतना उन की रचना का विस्तार है । आत्मानुशासन यह आप की दूसरी रचना है जो वैराग्यपर मुभाषितों का अच्छा संग्रह है ले. ६ ।' देवसेन कृत दर्शनसार के अनुसार आप महातपस्वी, पक्षोपवासी और भावलिंगी मुनि थे [ले. ५] । उत्तर पुराण की प्रशस्ति में आप के गुरु के रूप में जिनसेन और दशरथगुरु का स्मरण किया गया है [ले. ८] । आचार्य गुणभद्र के शिष्य लोकसेन थे। उत्तर पुराण की प्रशस्ति संभवतः आप की ही रची हुई है। यह प्रशस्ति शक- ८२० के आश्विन ३ आ. वीरसेन, जिनसेन और गुणभद्र का विस्तृत परिचय पं. नाथूरामजी प्रेमी द्वारा दिया गया है (जैन साहित्य और इतिहास)। ४ गुणभद्र की एक और रचना जिनदत्तचरित्र, जो ९ सर्गों का संस्कृत काव्य है, प्रकाशित हो चुकी है ( मा. दि. जै, ग्रंथमाला ७, बम्बई १९१६ । For Private And Personal Use Only
SR No.010616
Book TitleBhattarak Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV P Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1958
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy