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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना १५. उपसंहार भट्टारक सम्प्रदाय का इतिहास अब तक कुछ उपेक्षित सा रहा है । इस ग्रन्थ में उस के एक भाग का उपलब्ध वृत्तान्त संगृहीत हुआ है । इस से यह स्पष्ट होता है कि इतिहास का यह भाग भी काफी महत्त्वपूर्ण है । इसी पद्धति से दिगम्बर सम्प्रदाय के मुडबिद्री, श्रवणबेलगुल, कारकल, हुंबच और कोल्हापुर के भट्टारक पीठों का वृत्तान्त तथा श्वेताम्बर सम्प्रदाय के बीकानेर, दिल्ली, लखनऊ आदि अनेक भट्टारक पीठों का वृत्तान्त संग्रहीत किया जाए तो जैन सम्प्रदाय का एक हजार वर्षों का इतिहास बहुत कुछ स्पष्ट और प्रामाणिक रूप ले सकेगा । २३ इस ग्रंथ में एक सीमित संख्या में ही साधनों का उपयोग हो सका है अभी अनेक भट्टारक पीठों के शास्त्रभांडार, अनेक मूर्तिलेख एवं शिलालेखों का अवलोकन कर के नई सामग्री प्रकाश में लाई जा सकती है। इसी प्रकार ऐसे कई मूर्तिलेख आदि साधन सन्दिग्धता के कारण इस ग्रन्थ में समाविष्ट नहीं किए हैं। अधिक साधन उपलब्ध होने पर इन की सन्दिग्धता भी दूर हो सकती है। इस तरह साधनों की मर्यादाओं के बावजूद इस ग्रन्थ में कोई ४०० भट्टारकों का, उन के १७५ शिष्यों का, ३०० ग्रन्थों का, ९० मन्दिरों का, ३१ जातियों का, १०० शासकों का तथा २०० स्थानों का उल्लेख हुआ है एवं उन का ऐतिहासिक मूल्य निर्धारित हुआ है । यदि सब साधनों का पूरा उपयोग किया जाए तो यह संख्या आसानी से दुगुनी हो सकती है। For Private And Personal Use Only भट्टारक सम्प्रदाय के इतिहास में जैनसमाज की अवनति का ही इतिहास छिपा है । किन्तु उस में कई उज्ज्वल व्यक्तिमत्त्व हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिए समर्थ हैं । भ. शुभचन्द्र और भ सकलकीर्ति जैसे ग्रन्थकर्ता और भ. जिनचन्द्र जैसे मूर्तिप्रतिष्ठापक आचार्यों की सर्वथा उपेक्षा की जाए तो जैन समाज का इतिहास अधूरा ही रहेगा । उन्नति का इतिहास प्रेरक शक्ति के रूप में उपयुक्त होता है । उसी प्रकार अवनति का इतिहास भी अनेक शिक्षाएं दे सकता है। भट्टारक सम्प्रदाय के इतिहास में जो संरक्षगशीलता दृष्टिगोचर होती है उस के परिणामों से सावधान हो कर यदि हम फिर एक बार विकासशील प्रवृत्ति को अपना सके तो जैन समाज फिर एक बार अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त कर सकती है।
SR No.010616
Book TitleBhattarak Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV P Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1958
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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