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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ भट्टारक संप्रदाय ये भट्टारकों के प्रभाव क्षेत्र के घटक बन सके । अप्रत्यक्ष रूप से यद्यपि इस प्रकार वैदिक सम्प्रदाय से समझौता किया गया तथापि प्रत्यक्ष रूप से अनेक बार उस से संघर्ष भी हुआ। विभिन्न वादविवादों में श्रुतसागरसूरि ने नीलकण्ठ भट्ट का, प्रतापकीर्ति ने केदारभट्ट का, विजयसेन ने चन्द्रतपस्वी का, चन्द्रकीर्ति ने कृष्णभट्ट का और धारसेन ने धनेश्वरभट्ट का पराजय किया था। ग्रन्थों में भी न्याय, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त आदि वैदिक दर्शनों पर खंडनात्मक लेखन किया गया । बारहवीं सदी से मुस्लिम राजसत्ता भारत में दृढमूल हुई। नम मुनियों के स्थान पर भट्टारकों की स्थापना होने में इस परिस्थिति का बडा हाथ था। आगे चल कर भट्टारकों ने अनेक मुस्लिम शासकों से अच्छे सम्बन्ध स्थापित कर लिए । मुस्लिमों द्वारा इस युग में जैनों पर कोई विशेष अन्याय हुआ हो ऐसा ज्ञात नहीं होता। किन्तु मुस्लिम समाज या इस्लाम धर्म से जैनों का विशेष सम्बन्ध नहीं आता था। अपवाद रूप से भ. राजकीर्ति के शिष्य पं. हाजी अवश्य मुस्लिम प्रतीत होते हैं। भट्टारको से श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सम्बन्ध बहुत अच्छे नहीं थे। शायद इस लिए कि इन दोनों के बाह्य रूप में कोई अन्तर नहीं रहा था, वे अपना विरोध अन्य मार्गों से प्रकट करते रहते थे। भ. श्रीभूषण ने एक विवाद में श्वेतांबरों का एक मन्दिर गिरा कर उन्हें निर्वासित कराया था। स्थानकवासी सम्प्रदाय के मूर्तिपूजा विरोध के लिए श्रुतसागर सूरि ने जगह जगह उन की निन्दा की है। स्थानकवासी साधु उच्च नीच का विचार न करते हुए सब लोगों से आहार ग्रहण करते थे इस पर भी उन्हें काफी गुस्सा आता था। केवलियों का आहार, स्त्री मुक्ति और भ. महावीर का गर्भान्तरण इन श्वेताम्बर मान्यताओं के खण्डन के लिए भ. शुभचन्द्र ने संशयिवदनविदारण नामक ग्रन्थ लिखा। अपवाद रूप से कारंजा के भट्टारकों के विषय में श्वेताम्बर साधु शीलविजय ने प्रशंसात्मक उद्गार व्यक्त किए थे। किन्तु ऐसे प्रसंग बहुत ही कम बार आते थे। श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय के इस विरोध का एक प्रमुख कारण तीर्थक्षेत्रों का अधिकार था। माणिक्यस्वामी, केशरियाजी, चंदवाड, जीरापल्ली, आदि अतिशय क्षेत्र और प्रायः * यह मतप्रणाली प्राप्त ऐतिहासिक आधारोंकी सीमाओमें समझ लेनी चाहिए। यह अभी विचाराधीन है, और इस विषयमें मतभेद भी है। -ग्रंथमाला संपादक For Private And Personal Use Only
SR No.010616
Book TitleBhattarak Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV P Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1958
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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