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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना १०. कार्य- चमत्कार मन्त्र तन्त्रों की साधना द्वारा किसी देवी या देव को प्रसन्न कर लेना भट्टारकों का विशेष कार्य माना जाता था। ऐहिक दृष्टि से मुक्त होने के कारण और श्रावकों से कम सम्बन्ध होने के कारण मुनियों को मन्त्रसाधना करने का निषेध था। भट्टारकों का स्थान समाज के शासक के रूप में होने से उन के लिए मन्त्रसाधना इष्ट ही समझी जाती थी। सूरत शाखा के भ, मल्लिभूषण ने पद्मावती देवी की आराधना की थी, तथा लाडयागड गच्छ के भ. महेन्द्रसेन ने क्षेत्रपाल को सम्बोधित किया था, ऐसे उल्लेख प्राप्त हुए हैं। ___ मन्त्रसाधना द्वारा भट्टारकों ने जो चमत्कार किये उन के कुछ उल्लेख प्राप्त हुए हैं। इन में पालकी का आकाश गमन मुख्य है। भ. सोमकीर्ति ने पावागढ़ में और भ. मलयकीर्ति ने आंतरी में यह चमत्कार किया था। मूरत के अन्तिम भट्टारकों के विषय में भी ऐसी ही अनुश्रुति प्राप्त हुई है। सरस्वती की पाषाण । मूर्ति के द्वारा दिगम्बर सम्प्रदाय का प्राचीनत्व सिद्ध किया गया यह भी चमत्कारों का अच्छा उदाहरण है। सामान्यतः यह चमत्कार आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा किया गया ऐसा मानते हैं, किन्तु कुछ विद्वानों के भत से यह चमत्कार उत्तर शाखा के भ. पद्मनंदि द्वारा किया गया था । कारंजा शाखा के भ. पद्मनंदि की मृत्यु मुक्तागिरि क्षेत्र पर किसी चमत्कार के कारण हुई ऐसी लोकोक्ति है। कारंजा के भ. देवेन्द्रकीर्ति (उपान्त्य) ने भातकुली के प्रतिष्ठा महोत्सव के अवसर पर लगी हुई आग मन्त्रित जल द्वारा शान्त की ऐसी भी अनुश्रुति है। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में चमत्कारों का कोई महत्त्व नहीं रहा है। किन्तु मध्ययुग की सामान्य लोगों की भावनाओं को देखते हुए उसे धर्म के क्षेत्र में जो स्थान मिला वह स्वाभाविक ही प्रतीत होता है। ११. कार्य-कलाकौशल्य का संरक्षण मध्ययुगीन समाज के जीवन में धर्म को जो महत्त्वपूर्ण स्थान था उस के कारण अन्यान्य अनेक क्षेत्रों का धर्म से सम्बन्ध स्थापित हो गया था। धर्म के नेता के नाते भट्टारकों ने विविध कलाओं को समय समय पर प्रोत्साहन दिया यह इसी का उदाहरण है। संगीत, शिल्प, चित्र, नृत्य आदि कलाओं के विषय में इस ग्रन्थ में अनेक उल्लेख प्राप्त हुए हैं। पूजाप्रतिष्ठा भट्टारकों का प्रमुख कार्य था और इस में संगीत का महत्त्वपूर्ण स्थान था। इस युग के पूजापाठों में गेवता विशेष रूप से है इस का निर्देश पहले For Private And Personal Use Only
SR No.010616
Book TitleBhattarak Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV P Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1958
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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