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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना श्रेष्ठ अंग है। व्रतों के उद्यापन आदि के अवसर पर नियमित रूप से एकाध प्राचीन ग्रन्थ की नई प्रति लिखा कर किसी मुनि या आर्यिका को दान दी जाती थीं । गणितसारसंग्रह जैसे पाठ्य पुस्तकों की कई प्रतियां शिष्यों के लिए तैयार की जाती थीं। पुराने हस्तलिखित खरीद कर उन का संग्रह किया जाता था। पुराने संग्रहों को समय समय पर ठीक किया जाता था। ग्रन्थों की भाषा कठिन हो तो उन के समासों मे टिप्पण लगा कर पढ़ने के लिए साहाय्य किया जाता था। हस्त. लिखितों की अन्तिम प्रशस्तियों का ऐतिहासिक महत्त्व सर्वमान्य है। इस ग्रन्थ में सम्मिलित समयसार और पंचास्तिकाय की प्रतियों की प्रशस्तियां नमूने के तौर पर देखी जा सकती हैं। गणितसारसंग्रह की प्रतियां भी प्रातिनिधिक हैं। ७. कार्य-शिष्यपरम्परा जैन समाज में विद्याध्ययन की व्यवस्था कुलपरम्परा पर आधारित नहीं थी। शायद इसी लिए वह ब्राह्मणपरम्परा जितनी सुदृढ नहीं रह सकी। यह कमी दूर करने के लिए हमेशा शिष्य परम्पराओं के विस्तार का प्रयत्न जैन साधुओं द्वारा किया गया। भट्टारक सम्प्रदाय भी इस प्रवृत्ति को निभाता रहा। ग्रन्थ के मूल पाठ से स्पष्ट होगा कि इस कार्य में भट्टारकों ने काफी सफलता प्राप्त की। ब्रह्म जिनदास, श्रुतसागरसूरि, पण्डित राजमल्ल आदि भट्टारकशिष्यों के नाम उन के गुरुओं से भी अधिक स्मरणीय हुए हैं । व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा के फलस्वरूप जिस प्रकार भट्टारक पीठों की वृद्धि हुई उसी प्रकार शिष्य परम्पराओं का भी पृथक् अस्तित्व रह सका। अनेक बार देखा गया है कि भट्टारकों के जो शिष्य पट्टाभिषिक्त नहीं हुए थे उन की स्वतन्त्र शिष्य परम्पराएं छह सात पीढियों तक चलती रहीं। गणितसारसंग्रह और शब्दार्णवचन्द्रिका की प्रशस्तियों में इस के अच्छे उदाहरण मिलते हैं। विभिन्न भट्टारक पीठों में सौहार्द की रक्षा करने में भी शिष्यपरम्परा का महत्त्वपूर्ण उपयोग हुआ। दक्षिण के पण्डितदेव और नागचन्द्र जैसे विद्वानों का उत्तर के जिनचन्द्र और ज्ञानभूषण जैसे भट्टारकों से सहकार्य हुआ यह इसी का उदाहरण है। ब्रह्म शान्तिदास के सूरत और ईडर इन दोनों पीठों से अच्छे सम्बन्ध थे! इसी प्रकार पण्डित राजमल्ल भी माथुर गच्छ की दो भिन्न शाखाओं से एक ही समय संलग्न रह सके थे। कारंजा के लाडवागड गच्छ के कवि पामो जैसे शिष्यों ने नन्दीतट गच्छ के भट्टारकों से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किए थे। इस दृष्टि से परस्पर For Private And Personal Use Only
SR No.010616
Book TitleBhattarak Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV P Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1958
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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