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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना वैसे इन सब की मूर्तियों को पद्मावती के ही विभिन्न रूप माना जाने लगा, और अन्त में काली और दुर्गा जैसी अन्य या स्थानिक सम्प्रदाय की देवताओं के साथ भी इन की एकता होने लगी थी। कुक्कुट आदि वाहन, धनुष आदि शस्त्र इत्यादि बाह्य चिन्हों से यह गलत एकता आसानी से स्थापित हो सकी जिस का अब भी जैनसमाज में काफी प्रभाव है। प्रतिष्ठाओं के लिए वैसे कोई महीना वयं नहीं था। फिर भी वैशाख में सब से अधिक प्रतिष्ठाएं हुई। इस का कारण शायद यह था कि अक्षय तृतीया एक स्वयंसिद्ध मुहूर्त माना जाता था। उस दिन के लिए पंचांग देखने की जरूरत नहीं समझी जाती थी । यातायात आदि की दृष्टि से भी यही मौसम ऐसे उत्सवों के लिए अनुकूल भी होता है। संख्या की दृष्टि से दिल्ली शाखा के भ. जिनचन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां सब से अधिक है । प्रतिष्ठाकर्ता सेट जीवराज पापडीवाल के प्रयत्नों से ये हजारों मूर्तियां भारत के कोने कोने में पहुंची हैं। इन की प्रतिष्ठा संवत् १५४८ की अक्षयतृतीया को हुई थी। विशालता की दृष्टि से ग्वालियर और चंदेरी की मूर्तियां उल्लेखयोग्य है। कारंजा के उपान्त्य भ. देवेन्द्रकीर्ति ने भी रामटेक, नागपुर आदि स्थानों में विशाल मूर्तियां स्थापित की हैं। मूर्तियों के पादपीठ के लेख बहुधा टूटी फूटी संस्कृत में लिखे जाते थे। क्वचित हिन्दी, मराठी आदि लोकभाषाओं का भी उपयोग उन के लिए हुआ है। उन का विस्तार मूर्ति के विस्तार के अनुरूप होता था।' सर्वाधिक विस्तृत लेख में समय, प्रतिष्ठाकर्ता सेठ की वंशपरम्परा, प्रतिष्ठासंचालक भट्टारक की गुरुपरम्परा, स्थान, स्थानीय और प्रादेशिक शासक तथा एकाध मंगल वाक्य इन का निर्देश होता था। ६. कार्य- ग्रन्थलेखन और संरक्षण भट्टारक युग का ग्रन्थलेखन मुख्य रूप से पिछले युग के ग्रन्थों के संक्षेप या रूपान्तर के रूप में था । कोई नई मौलिक प्रवृत्ति उस में नहीं थी। पुराण, कथा और पूजापाठ इन तीन प्रकारों की रचनाएं संख्या की दृष्टि से सर्वाधिक हैं। कर्मशास्त्र, अध्यात्म आदि गम्भीर विषयों के ग्रन्थों पर कुछ टीकाओं के अतिरिक्त अन्य लेखन नहीं हुआ। १ लखों के विस्तारभेद का नमूना देखिए-जैन सिद्धान्त भास्कर व.७, पृ. १६. For Private And Personal Use Only
SR No.010616
Book TitleBhattarak Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV P Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1958
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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