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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९५ बलात्कार गण-सूरत शाखा के कुल को आप ने उज्ज्वल किया । सम्मेदशिखर, चम्पापुर, पावापुर, गिरनार, प्रयाग आदि क्षेत्रों की आप ने वंदना की, तथा सहस्रकूट बिम्ब स्थापित किया । श्रुतसागर आप के मुख्य शिष्य थे (ले. ४३९)। श्रुतसागर सूरि ने महेन्द्रदत्त के पुत्र लक्ष्मण की प्रार्थना पर ज्येष्ठ जिनवर कथा लिखी (ले. ४४२), कल्याणकीर्ति के आग्रह से षोडशकारण कथा लिखी ( ले. ४५०), मतिसागर की प्रेरणा से मुक्तावली कथा लिखी [ ले. ४५१ ], साध्वी सौवर्णिका की प्रार्थना पर मेरुपंक्ति कथा लिखी [ ले. ४५२ ] तथा श्रीराज की विनंति पर लक्षणपंक्ति कथा की रचना की [ ले. ४५३ ] । मेघमाला, सप्त परमस्थान, रविवार, चंदनषष्ठी, आकाशपंचमी, पुष्पांजलि, निर्दुःखसप्तमी, श्रवण द्वादशी, रत्नत्रय इन व्रतों की कथाएं भी आप ने लिखी (ले. ४४० - ४९)। औदार्यचिन्तामणि नामक प्राकृत व्याकरण, शुभचन्द्र कृत ज्ञानार्णव के गद्य भाग की टीका तत्त्वत्रयप्रकाशिका, महाभिषेक टीका तथा श्रुतस्कन्ध पूजा ये रचनाएं आपने लिखी" । इन में तत्त्वत्रयप्रकाशिका की रचना आचार्य सिंहनन्दि के आग्रह से हुई (ले. ४५४-५७ )। विद्यानन्दीके पट्टशिष्य मल्लिभूषण हुए । आप के समय संवत् १५४४ की वैशाख शु. ३ को खंभात में एक निषीदिका बनाई गई । इस के लेख में आर्यिका रत्नश्री, कल्याणश्री और जिनमती का उल्लेख है (ले. ४५८ ) । मल्लिभूषण ने आचार्य अमरकीर्ति को पंचास्तिकाय की एक प्रति दी थी ( ले. ४५९ )। आप के शिष्य लक्ष्मण के लिए सावयधम्मदोहा पंजिका की एक प्रति संवत् १५५५ की कार्तिक शु. १५ ७४ श्रुतसागर सूरि की अन्य रचनाओं के लिए विद्यानन्दि के उत्तराधिकारी मलिभूषण और लक्ष्मीचन्द्र का वृत्तान्त देखिए । ७५ सम्भवतः भानपुर शाखा में इन्ही का उल्लेख हुआ है । ७६ ब्र. शीतलप्रसादजी ने यह लेख पद्मावती मूर्ति का कहा है, किन्तु उस लेखपर से वह क्षुल्लिका जिनमती की मूर्ति प्रतीत होती है । For Private And Personal Use Only
SR No.010616
Book TitleBhattarak Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV P Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1958
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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