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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भट्टारक संप्रदाय पूरे कार्य पर इसी मनोवृत्ति का प्रभाव मिलता है । एकदृष्टि से यह प्रवृत्ति समाज के अस्तित्व के लिए आवश्यक भी थी । यह प्रवृत्ति न होने के कारण ही बौद्ध धर्मावलम्बी समाज भारत से नष्ट हो गई यद्यपि उस का सामर्थ्य जैन समाज से अपेक्षाकृत अधिक था। २. उत्पत्ति और पार्श्वभूमि ___उपर्युक्त तीन कालखंडों में पहले विकासशील युग के इतिहास के साधन बहुत कम मात्रा में उपलब्ध हैं । इस युग में दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दोनों संघों में एक एक ही आचार्य परम्परा का अस्तित्व सुनिश्चित हुआ है । स्थूलतः देखा जाय तो दक्षिणभारत में दिगम्बर सम्प्रदाय और उत्तर भारत में श्वेताम्बर सम्प्रदाय कार्यशील रहा था । दिगम्बर परम्परा में भगवान् महावीर के बाद गौतमइन्द्रभूति, सुधर्मस्वामी लोहार्य, जम्बूस्वामी, विष्णुनन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन, भद्रवाहु, विशाख, प्रौष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नागसेन, सिद्धार्थ, धृति पेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव, धर्मसेन, नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन, कंसाचार्य, सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु और लोहाचार्य इन आचार्यों को श्रुतधर कहा जाता है और इन का सम्मिलित समय ६८३ वर्ष कहा गया है । ' श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रायः इतने ही समय में आर्य जम्बूस्वामी के बाद प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, संभूतिविजय, भद्रबाहु, स्थूलभद्र, महागिरि, सुहस्ति, सुस्थित, सुप्रतिवुद्ध, इन्द्रदिन्न, दिन्न, सिंहगिरि और वज्रस्वामी इन आचार्यों का उल्लेख पाया जाता है। इसी समय यद्यपि यापनीय संघ की तीसरी परम्परा भी हो गई है , तथापि उस की ऐसी कोई व्यवस्थित परम्परा का निर्देश नहीं मिलता है। इस पहले युग के अन्त से ही दूसरे युग की विभिन्न परम्पराओं का आरम्भ होता है जिन का आगे चल कर तीसरे युग के विभिन्न भट्टारकसम्प्रदायों में रूपान्तर हुआ। इस परम्परा-विस्तार का प्रमुख कारण स्थान भेद था और कहीं कहीं कुछ आचरण के फरक से भी उसे बल मिला है। यद्यपि इस दूसरे युग का इतिहास इस ग्रन्थ का प्रमुख विषय नहीं है, तथापि पार्श्वभूमि के तौर पर इस परम्पराविस्तार को निम्न तालिका के रूप में अंकित किया जा सकता है। यह तालिका प्रधानरूप से पट्टावलियों के अवलोकन से बनाई गई है और इस लिए अन्तिम १ धवला भाग १ पृ ६६ आदि, २ तपागच्छ पट्टावली (जैन साहित्य संशोधक खंड १ अंक ३) आदि For Private And Personal Use Only
SR No.010616
Book TitleBhattarak Sampradaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV P Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1958
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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