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________________ सुवकृतांग की मूक्तिया तालीस १०६ जो अन्दर में राग-द्वेष रूप-भाव कर्म नहीं करता, उसे नए कर्म का वध नही होता । एक ही धर्मतत्त्व को प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार पृथक-पृथक रूप से ग्रहण करता है । १०७ १०८ जिसने काक्षा - आसक्ति का अन्त कर दिया है, वह मनुष्यो के लिए पथप्रदर्शक चक्षु है । १०६. जो अज्ञान के कारण अव पथभ्रष्ट हो गया है, उसे फिर‍ भविष्य मे सवोधि मिलना कठिन है । ११०. आत्मा और है, शरीर और है । १११ शब्द रूप आदि काम भोग (जडपदार्थ) और हैं, मैं (आत्मा) और हूँ । ११२ कोई किसी दूसरे के दुख को वटा नही सकता । ११३ हर प्राणी अकेला जन्म लेता है, अकेला मरता है । ११४ खाने पीने की लालसा से किसी को धर्म का उपदेश नही करना चाहिए । ११५. साधक विना किसी भौतिक इच्छा के प्रशातभाव से एक मात्र कर्मनिर्जरा के लिए धर्म का उपदेश करे । ११६ मुनि जनो का हृदय शरदकालीन नदी के जल की तरह निर्मल होता है । वे पक्षी की तरह बन्धनो से विप्रमुक्त और पृथ्वी की तरह समस्त सुख-दु खो को समभाव से सहन करने वाले होते हैं । ११७. सद्गृहस्थ धर्मानुकूल हो आजीविका करते हैं । ११८. नही देखने वालो । तुम देखने वालो की बात पर विश्वास करके चलो ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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