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________________ पंतालीस सूत्रकृताग को सूक्तिया ६३ चतुर वही है जो कभी प्रमाद न करे । १४. मुमुक्षु को कमे-न-कैसे मन की विचिकित्सा मे पार हो जाना चाहिए । ६५ सूर्योदय होने पर (प्रकाग हाने पर) भी आँख के विना नहीं देखा जाता है, वैने ही स्वय में कोई कितना ही चतुर क्यो न हो, निर्देशक गुरु के अभाव मे तत्वदर्शन नहीं कर पाता। १६ बुद्धिमान किमी का उपहास नहीं करता। ६७ उपदेगक सत्य को कभी छिपाए नही, और न ही उसे तोड मरोड कर उपस्थित करे। ६८. माधक न किमी को तुच्छ-हल्का बताए और न किसी की झूठी प्रशसा करे। ६६. विचारशील पुरुप सदा विभज्यवाद अर्थात् म्याद्वाद से युक्त वचन का प्रयोग करे। १०० थोडे से मे कही जानी वाली बात को व्यर्थ ही लम्बी न करे । १०१ साधक आवश्यकता से अधिक न बोले । १०२ सम्यग्दृष्टि साधक को सत्य दृष्टि का अपलाप नही करना चाहिए । १०३ किसी भी प्राणी के साथ वर विरोध न वढाएँ । १०४ जिस साधक की अन्तरात्मा भावनायोग (निष्काम साधना) से शुद्ध है, वह जल मे नौका के समान है, अर्थात् वह ससार सागर को तैर जाता है, उसमे डूबता नही है। १०५. जो नये कर्मों का वन्धन नही करता है, उसके पूर्ववद्ध पापकर्म भी नष्ट हो जाते हैं।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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