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________________ सूत्रकृताग की सूक्तिया सेंतीस ४४. अज्ञानी सावक सकट काल मे उसी प्रकार खेदखिन्न हो जाते हैं, जिस प्रकार बूढे वल चढाई के मार्ग मे । ४५. घाव को अधिक खुजलाना ठीक नहीं, क्योकि खुजलाने से घाव अधिक फैलता है। ४६. भिक्षु प्रसन्न व गान्त भाव से अपने रुग्ण साथी की परिचर्या करे । ४७. सन्मार्ग का तिरस्कार करके तुम अल्प वैपयिक सुखो के लिए अनन्त मोमसुख का विनाश मत करो। ४८. जो समय पर अपना कार्य कर लेते हैं, वे वाद मे पछताते नहीं । ४६ निर्भय अकेला विचरने वाला सिंह भी मास के लोभ से जाल में फस जाता है (वैसे ही आसक्तिवग मनुप्य भी)। ५०. ब्रह्मचारी स्त्रीसंसर्ग को विपलिप्त कटक के समान समझकर उससे वचता रहे। ५१. जैसा किया हुआ कम, वैसा ही उसका भोग । ५२. आत्मा अकेला ही अपने किए दु ख को भोगता है । ५३. अतीत मे जमा भी कुछ कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है। ५४ अभय दान ही सर्वश्रेष्ठ दान है। ५५. तपो मे सर्वोत्तम तप है-ब्रह्मचर्य ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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