SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्ताईस आचाराग की मूक्तिया ११५ जो विचारपूर्वक बोलता है, वही सच्चा निग्रन्थ है । ११६. जो विचारपूर्वक नही बोलता है, उसका वचन कभी-न-कभी असत्य से दूपित हो सकता है। ११७ लोभ का प्रमग आने पर व्यक्ति असत्य का आश्रय ले लेता है। ११८. जो गुरुजनो की अनुमति लिए विना भोजन करता है वह अदत्तभोजी है, अर्थात् एक प्रकार मे चोरी का अन्न खाता है। ११६ जो वावग्यकता से अधिक भोजन नहीं करता है वही ब्रह्मचर्य का माधक मच्चा निन्य है। १२० यह गक्य नही है कि कानो मे पड़ने वाले अच्छे या बुरे गब्द सुने न जाएं, अत. शब्दो का नही, शब्दो के प्रति जगने वाले राग द्वप का त्याग करना चाहिए। १२१ यह शक्य नहीं है कि आँखो के मामने आने वाला अच्छा या बुरा स्प देखा न जाए, अत. स्प का नही, किंतु स्प के प्रति जागृत होने वाले राग द्वाप का त्याग करना चाहिए । १२२ यह शक्य नहीं है कि नाक के समक्ष आया हुआ सुगन्ध या दुर्गन्व मघने मे न आए, अत गध का नही, किंतु गध के प्रति जगने वाली राग द्वप की वृत्ति का त्याग करना चाहिए । १२३ यह गक्य नही है कि जीभ पर आया हुआ अच्छा या बुरा रस चखने मे न आये, अत रस का नही, कितु रम के प्रति जगने वाले रागद्वीप का त्याग करना चाहिए। १२४ यह शक्य नही है कि गरीर मे स्पृष्ट होने वाले अच्छे या बुरे स्पर्श की अनुमति न हो, अत स्पर्म का नही, किंतु स्पर्श के प्रति जगने वाले रागद्वप का त्याग करना चाहिए । १२५ अग्नि-शिखा के समान प्रदीप्त एवं प्रकाशमान रहने वाले अन्तर्लीन साधक के तप, प्रज्ञा और यश निरन्तर बढते रहते हैं ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy