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________________ अपवंवेद को सूक्तियों एक सौ तेईस ६८. जिस प्रकार मनुष्य काठ के पादबन्धन से मुक्त होता है, स्नान के द्वारा मल से मुक्त होता है, और जैसे कि छनने से घी पवित्र होता है, उसी प्रकार सभी दिव्य पुरुष मुझे भी पाप से शुद्ध करें, मुक्त करें। ६६. हम इस लोक मे भी ऋणरहित हो और परलोक मे भी ऋण रहित हो। ७०. जो पालन करते हैं वे देव हैं, और जो देव है वे पालन करते हैं । ७१ मैं जो हूँ वही है अर्थात् मैं जैसा अन्दर मे हैं, वैसा ही बाहर मे हूँ। मुझ मे बनावट जैसा कुछ नही है । ७२ हे गुरुजनो । मुझे आशीर्वाद दो कि मैं सभामो मे सुन्दर एवं हितकर बोलू। ७३. हे सभा । हम तेरा नाम जानते है, निश्चय ही तेरा नाम नरिष्टा है, तू किमी से भी हिसित अर्थात् अभिभूत नहीं होती । जो भी तेरे सदस्य हो, वे हमारे लिए अनुकूल वचन बोलने वाले हो। ७४. हे सभासदो! आपका मन मुझसे विमुख होकर कही अन्यत्र चला गया है, अथवा कही किसी अन्य विषय मे बद्ध होगया है। मैं (अध्यक्ष) आपके उस मन को अपनी ओर लौटाना चाहता हूँ, आपका मन मुझ में ही रमता रहे अर्थात् मेरे अनुकूल ही विचार करे। ७५. जीवात्मा के प्रत्येक घर (शरीर) मे पाच ज्ञानेन्द्रिया मन तथा बुद्धि ये सात रत्न हैं। ७६. जो मनुष्य अच्छे कार्य के लिए अपना धन समपंण करता है, दान के सुप्रसगो मे अपने पास रोक नही रखता है, उसी को अनेक धाराओ से विशेष धन प्राप्त होता है। ७७. कम अर्थात् पुरुषार्थ मेरे दायें हाथ मे हैं और विजय (सफलता) मेरे बाएं हाथ मे। व्यतिरिक्तसर्वविषययेषु ससक्तम् । ७. मदनुकूलार्थचिन्तापरं भवतु ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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