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________________ अथर्ववेद की सूक्तिया एक सौ सग्रह ३३. एक दूसरे के साथ प्रेमपूर्वक मधुर मंभाषण करते हुए आगे बढे चलो । ३४ मार सब को प्रपा (जलपान करने का स्थान) एक हो, आप सब एक साथ बैठकर भोजन करें। मैं याप सबको एक ही उद्देश्य की पूर्ति के लिए नियुक्त करता हूँ। आप सब अग्नि (अपने अन लक्ष्य) की उपासना के लिए सब ओर से ऐसे ही एकजूट हो, जैसे कि चक्र के आरे चक्र की नाभि मे चारो ओर से जुड़े होने हैं । ३५ सुबह और शाम अर्थात् सदाकाल आप सब प्रसन्नचित्त रहे । ३६. स्वच्छता का ध्यान रखनेवाला मनुष्य रोग आदि की पीडामओ से दूर रहता है । और मनोबल से समर्थ साधक पापो से दूर रहता है । ३७ ब्रह्म से ही ब्रह्म का प्रकाश होता है अर्थात् ज्ञान से ही ज्ञान का विस्तार होता है। ३८. ज्ञान का स्वामी दिव्य आत्मा ही विश्व का सम्राट् है । ३६. क्रान्तदर्शी श्रेष्ठ ज्ञानी ऐश्वयं से समृद्ध होकर भी किसी को पीडा नही देते हैं, सबपर अनुग्रह ही करते हैं । ४०. हिंस्र व्याघ्र आदि के दांत मूढ हो जाएं', भक्षण करने में असमर्थ हो जाएं । अर्थात् अत्याचारी लोगो की सहारक शक्ति कुण्ठित हो जाए। जो स्वयं सयमित है, नियत्रित है, उसको व्यर्थ ही और अधिक नियत्रित नही करना चाहिए । परंतु जो अभी अनियत्रित है, उसी को नियत्रित करना चाहिए। ४२ वृषभ ही हल जोतना, भार ढोना आदि के रूप मे भूमि (जनता) को धारण करता है, पोषण करता है। ३, अन्नवान् । ४. कर्षण-भारवहनादिना....धारयति पोषयति ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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