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________________ आचाराग की सूक्तियां उन्नीस ७६ जो वन्धन के हेतु है, वे ही कभी मोक्ष के हेतु भी हो सकते हैं, और जो मोक्ष के हेतु है, वे ही कभी वन्धन के हेतु भी हो सकते हैं। जो व्रत उपवास आदि सवर के हेतु है, वे कभी कभी सवर के हेतु नहीं भी हो सकते है । और जो आत्रव के हेतु है, वे कभी-कभी आत्रव के हेतु नहीं भी हो सकते है। [ात्रव और मवर आदि सब मूलत. माधक के अन्तरंग भावो पर आधारित है। ८० मृत्यु के मुख मे पडे हुए प्राणी को मृत्यु न आए, यह कभी नहीं हो सकता । ८१ हम ऐसा कहते हैं, ऐमा बोलते हैं, ऐनी प्रत्पणा करते है, ऐसी प्रज्ञापना करते हैं कि किसी भी प्राणी, किसी भी मूत, किसी भी जीव और किसी भी सत्व को न मारना चाहिए, न उनपर अनुचित शासन करना चाहिए, न उन को गुलामो की तरह पराधीन बनाना चाहिए, न उन्हे परिताप देना चाहिए और न उनके प्रति किसी प्रकार का उपद्रव करना चाहिए। उक्त हिमा धर्म मे किमी प्रकार का दोष नहीं है, यह ध्यान मे रखिए। हिसा वस्तुत आर्य (पवित्र) सिद्धान्त है । ८२ सर्वप्रथम विभिन्न मत-मतान्तरो के प्रतिपाद्य सिद्धान्त को जानना चाहिए, और फिर हिंसाप्रतिपादक मतवादियों से पूछना चाहिए कि "हे प्रवादियो । तुम्हे सुख प्रिय लगता है या दु ख ?' "हमे दु ख अप्रिय है, सुख नहीं" यह सम्यक स्वीकार कर लेने पर उन्हे स्पष्ट कहना चाहिए कि "तुम्हारी ही तरह विश्व के समस्त प्राणी, जीव, मूत और सत्वो को भी दुख बशान्ति (व्याकुलता) देने वाला है, महाभय का कारण है और दु खरूप है ।" ८३ अपने धर्म से विपरीत रहने वाले लोगो के प्रति भी उपेक्षाभाव (= मध्यस्थता का भाव) रखो। जो कोई विरोधियो के प्रति उपेक्षा- तटस्थता रखता है, उद्विग्न नही होता है, वह समग्र विश्व के विद्वानो मे अग्रणी विद्वान है।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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