SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचाराग की मूक्तियाँ संग्रह ७०. जो मेधावी माधक सत्य की आज्ञा में उपस्थित रहता है, वह मार= मृत्यु के प्रवाह को तैर जाता है । ७१ मत्य की साधना करने वाला साधक सब ओर दुग्यो मे घिरा रहकर भी घवगता नहीं है, विचलित नहीं होता है। ७२ जो एक को जानता है वह मव को जानता है । और जो सब को जानता है, वह एक को जानता है । [जिस प्रकार ममत्र विश्व अनन्त है, उसी प्रकार एक छोटे-से-छोटा पदार्थ भी अनन्त है, अनन्त गुण-पर्याय वाला है,-अत. अनत ज्ञानी ही एक और सबका पूर्ण ज्ञान कर सकता है ] ७६ प्रमत्त को सब ओर भय रहता है। अप्रमत्त को किसी ओर भी भय नही है । ७४ जो एक अपने को नमा लेता है-जीत लेता है, वह समग्र संसार को नमा लेता है। ७५ जो मोह को क्षय करता है, वह अन्य अनेक कर्म-विकल्पो को क्षय करता है। ७६ गस्त्र (=हिला) एक-से-एक बढकर है । परन्तु अशस्त्र (=हिसा) एक मे-एक वटकर नहीं है, अर्थात् अहिमा की साधना से वटकर श्रेष्ठ दूसरी कोई नाधना नहीं है। ७७ वीतराग सत्यद्रप्टा को कोई उपाधि होती है या नहीं ? नही होती है। ७८ लोकपमा से मुक्त रहना चाहिए । जिसको यह लोकपणा नहीं है, उसको अन्य पाप-प्रवृत्तिया कैसे हो सकती है ?
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy