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________________ सुत्तनिपात की सूक्तिया इक्यानबे ४६. विश्व में ऐसा कोई उपक्रम नहीं हैं, जिससे कि प्रागी जन्म लेकर न मरें। ५०. रोने मे या शोक करने से चित्त को यान्ति प्राप्त नहीं होती। ५१. जल मे निप्त नहीं होने वाले कमल की तरह, तथा आरे की नोक पर न टिकने वाले सरसो के दाने की तरह जो विपयो मे लिप्त नहीं होता, उसे में ब्राह्मण कहता हूँ। ५२. संसार में नाम गोत्र कल्पित है, केवल व्यवहारमात्र हैं। ५३. मसार कर्म मे चलता है, प्रजा पानं में गलती है । ५४. जन्म के साथ ही मनुष्य के मुंह मे कुल्हाडी (जीभ) पैदा होती है । मज्ञानी दुर्वचन बोलकर उससे अपने आप को ही काट डालता है । ५५ जो निन्दनीय की प्रशसा करता है और प्रशसनीय की निन्दा करता है, वह मुख से पाप एकत्रित करता है जिम के कारण उसे कभी सुख प्राप्त नहीं होता। ५६. असत्यवादी नरक में जाता है, और जो करके 'नही किया'-ऐसा कहता है वह भी नरक में जाता है । ५७ किसी का कृत कर्म नष्ट नहीं होता, समय पर कर्ता को वह प्राप्त होता ही है। ५८ जैसा मै हूँ वैसे ही ये सब प्राणी हैं, और जैसे ये सब प्राणी हैं वैसा ही मैं हूँ- इस प्रकार अपने समान सब प्राणियो को समझकर न स्वयं किसी का वध करे और न दूसरो से कराए ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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