SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्ताईस संयुत्तनिकाय की सूक्तिया २१ श्रद्धा से दिये जाने वाले दान की बडी महिमा है । दान से भी बढकर धर्म के स्वरूप को जानना है । २२ इच्छा वढने से पाप होते हैं, इच्छा वढने से दुख होते हैं । इच्छा को दूर करने से पाप दूर हो जाता है, पाप दूर होने से दुख दूर हो जाते हैं। २३ ससार के सुन्दर पदार्थ काम नहीं है, मन मे राग का हो जाना हो वस्तुतः काम है। २४ अपना अपराध स्वीकार करने वालो को जो क्षमा नही करता है, वह भीतर ही भीतर क्रोध रखने वाला महा द्वषो, वैर को और अधिक बाँध लेता है। २५. हीन (क्षुद्र) लक्ष्य वाले पार नही जा सकते । २६. अन्न देने वाला बल देता है, वस्त्र देने वाला वर्ण (रूप) देता है। २७. वह सब कुछ देने वाला होता है, जो उपाश्रय (स्थान, गृह) देता है और जो धर्म का उपदेश करता है, वह अमृत देने वाला होता है। २८. भला ऐसा कौन सा प्राणी है, जिसे अन्न प्यारा न लगता हो ? २६ परलोक मे केवल पुण्य ही प्राणियो का आधार (सहारा) होता है। देवता३०. कौन सी चीज ऐसी है जो बुढापे तक ठीक है ? स्थिरता पाने के लिए क्या ठीक है ? मनुष्यो का रत्न क्या है ? चोरो से क्या नही चुराया जा सकता? शील (सदाचार) बुढापे तक ठीक है, स्थिरता के लिए श्रद्धा ठीक है, प्रज्ञा मनुष्यो का रत्न है, पुण्य चोरो से नही चुराया जा सकता।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy