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________________ सूक्ति कण दो सौ सेंतालीस १०४. अहिंसा सब आश्रमो का हृदय है, सव शास्त्रो का गर्भ-उत्पत्तिस्थान १०५. ब्रह्म का अर्थ है-आत्मा, आत्मा मे चर्या-रमण करना-ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचारी की पर देह मे प्रवृत्ति और तृप्ति नहीं होती। १०६. वात, पित्त आदि विकारो से मनुष्य वैसा उन्मत्त नही होता, जैसा कि कपायो से उन्मत्त होता है । कपायोन्मत्त ही वस्तुत उन्मत्त है । १०७. क्रुद्ध मनुष्य राक्षस की तरह भयकर बन जाता है । १०८ क्रोध से मनुष्य का हृदय रौद्र बन जाता है। वह मनुप्य होने पर भी नारक (नरक के जीव) जैसा आचरण करने लग जाता है । १०६ निरभिमानी मनुष्य जन और स्वजन-सभी को सदा प्रिय लगता है। वह ज्ञान, यश और सपत्ति प्राप्त करता है तथा अपना प्रत्येक कार्य सिद्ध कर सकता है । १११ एक माया ( कपट )-हजारो सत्यो का नाश कर डालती है। १११. जिन शासन (आगम) मे सिर्फ दो ही बात बताई गई हैं-मार्ग और मार्ग का फल । ११२ मन रूपी जल, जब निर्मल एव स्थिर हो जाता है, तब उसमे आत्मा का दिव्य रूप झलकने लग जाता है ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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