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________________ मुक्ति कण दो सौ तेतालीस ८१ सूत्र (शब्द पाठ) अर्थ का स्थान अवश्य है । परन्तु मात्र सूत्र से अथं की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती । अर्थ का ज्ञान तो गहन नयवाद पर आधा रित होने के कारण वडी कठिनता से हो पाता है । ___ ८२. क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया-दोनो ही एकान्त हैं, (फलत जैन दर्शनसम्मत नहीं है।) ___८३ विभिन्न मिथ्यादर्शनो का समूह, अमृतसार=अमृत के समान क्लेश का नाशक, और मुमुक्षु आत्माओ के लिए सहज सुवोध भगवान जिन प्रवचन का मंगल हो। ८४. जिसके विना विश्व का कोई भी व्यवहार सम्यग् रूप से घटित नही होता है, अतएव जो त्रिभुवन का एक मात्र गुरु (सत्यार्थ का उपदेशक) है, उस अनेकान्त वाद को मेरा नमस्कार है। ८५ आंखो से अधा मनुष्य, आँख के सिवाय वाकी सब इ द्रियो से जानता है, किन्तु जूए मे अघा हुआ मनुष्य सव इन्द्रियां होने पर भी किसी इन्द्रिय से कुछ नही जान पाता। ८६. क्रोध मे अघा हुआ मनुष्य पास मे खडी मां, बहिन और बच्चे को भी मारने लग जाता है। ८७ जन्म के साथ मरण, यौवन के साथ बुढापा, लक्ष्मी के साथ विनाश निर तर लगा हुआ है । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु को नश्वर समझना चाहिए । ८८. सब जगह प्रिय वचन बोलना, दुर्जन के दुर्वचन बोलने पर भी उसे क्षमा करना, और सब के गुण ग्रहण करते रहना-यह मदकपायी (शान्त स्वभावी) आत्मा के लक्षण हैं। ८९. जीव सकल्पमय है, और सकल्प सुखदुःखात्मक हैं। ६०. जीव (आत्मा) अन्तस्तत्त्व है, बाकी सब द्रव्य बहिस्तत्व हैं। ६१. साधक दूसरो को सतोप देने वाला हितकारी और मित-सक्षिप्त वचन वोलता है।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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