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________________ सूक्ति कण दो सौ इकतालीस ७२ जो वाणी से सदा सुन्दर बोलता है, और कर्म से सदा सदाचरण करता है, वह व्यक्ति समय पर बरसने वाले मेघ की तरह सदा प्रशसनीय और जनप्रिय होता है । ७३. वघन चाहे सोने का हो या लोहे का, वघन तो आखिर दुखकारक ही है | बहुत मूल्यवान दंड (डडे ) का प्रहार होने पर भी दर्द तो होता ही है ! ७४. पर्यायदृष्टि से सभी पदार्थ नियमेन उत्पन्न भी होते हैं, ओर नष्ट भी । परन्तु द्रव्यदृष्टि से सभी पदार्थ उत्पत्ति और विनाश से रहित सदाकाल ध्रुव हैं । ७५. द्रव्य कभी पर्याय के विना नही होता है, और पर्याय कभी द्रव्य के विना नही होता है । अत द्रव्य का लक्षण उत्पाद, नाश और ध्रुव (स्थिति) रूप है | ७६. अपने-अपने पक्ष मे ही प्रतिवद्ध परस्पर निरपेक्ष सभी नय ( मत) मिथ्या हैं, असम्यक् हैं । परन्तु ये ही नय जव परस्पर सापेक्ष होते हैं, तव सत्य एव सम्यक् वन जाते हैं । ७७. जैन दर्शन मे न एकान्त भेदवाद मान्य है और न एकान्त अभेदवाद । (अत. जैन दर्शन भेदाभेदवादी दर्शन है ।) ७८ जितने वचनविकल्प हैं, उतने ही नयवाद हैं, और जितने भी नयवाद हैं, ससार मे उतने ही पर समय हैं, अर्थात् मत मतान्तर है । ७९. वस्तुतत्त्व की प्ररूपणा द्रव्य', क्षेत्र े, काल, भाव, पर्याय", देश, संयोग' और भेद' के आधार पर ही सम्यक् होती है । ८० मात्र आगम की भक्ति के बल पर ही कोई सिद्धान्त का ज्ञाता नही हो सकता । और हर कोई सिद्धान्त का ज्ञाता भी निश्चित रूप से प्ररूपणा करने के योग्य प्रवक्ता नही हो सकता । १. पदार्थ की मूल जाति, २ स्थिति क्षेत्र, ३ योग्य समय, ४ पदार्थ की मूल शक्ति, ५ शक्तियो के विभिन्न परिणमन अर्थात् कार्य, ६ व्यावहारिक स्थान, ७ आस-पास की परिस्थिति, ८ प्रकार ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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