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________________ दो सौ इकत्तीस सूक्ति कण १८ जो व्यापारी ग्राहक को अभीष्ट वस्तु देता है और प्रीतिवचन से मतुष्ट भी करता है, वह व्यवहारी है । जो न देता है और न प्रीतिवचन से सतुष्ट ही करता है वह अव्यवहारी है । १६. जहा कही भी अपने धर्माचार्य को देखें, वही पर उन्हें वन्दना नमस्कार करना चाहिए । २०. हे राजन् | तुम जीवन के पूर्वकाल मे रमणीय होकर उत्तर काल मे अरमणीय मत वन जाना । २१ सम्यक् दृष्टि का श्रुत, श्रुत ज्ञान है । मिथ्या दृष्टि का श्रुत, श्रुत अज्ञान है । २२ सभी ससारी जीवो का कम से कम अक्षर ज्ञान का अनन्तवाँ भाग तो सदा उद्घाटित हो रहता है । २३. घने मेघावरणो के भीतर भी चद्र सूर्य की प्रभा कुछ न कुछ प्रकाशमान रहती ही है । २४. उपयोगशून्य साधना द्रव्य है, भाव नही । २५. एक कण से द्रोण' भर पाक की, और एक गाथा से कवि की परीक्षा हो जाती है । २६. जिस की आत्मा संयम मे, नियम मे एव तप मे सन्निहित = तल्लीन है, उसी की सच्ची सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान ने कहा है । २७ जो त्रस (कीट, पतगादि) और स्थावर ( पृथ्वी, जल आदि) सब जीवो के प्रति सम है अर्थात् समत्वयुक्त है, उसी की सच्ची सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान ने कहा है । २८ जिस प्रकार मुझ को दुःख प्रिय नही है, उसी प्रकार सभी जीवो को दुखप्रिय नही है, जो ऐसा जानकर न स्वय हिंसा करता है, न किसी से हिंसा करवाता है, वह समत्वयोगी ही सच्चा 'समण' है । १-१६ या ३२ सेर का एक तौल विशेष । - - संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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