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________________ भाप्यसाहित्य को सूक्तिया दो सौ नौ १५५. गुरुदेव के अभिप्राय को समझ कर उसके अनुकूल चलने वाला शिष्य सम्यग् प्रकार से ज्ञान प्राप्त करता है । १५६ (अनेकान्त दृष्टि से युक्त होने पर) मिथ्यात्वमतो का समूह भी मम्यक्त्व बन जाता है। १५७ बहरे के समान-शिष्य पूछे कुछ और, वताए कुछ और-वह गुरु, गुरु नहीं है । और वह शिप्य भी शिष्य नहीं है, जो सुने कुछ और, कहे कुछ और। १५८. वचन की फलश्रुति है-अर्थज्ञान | जिस वचन के बोलने से अर्थ का ज्ञान नही हो तो उस 'वचन' से भी क्या लाभ ? १५६ सामायिक से उपयोग रखने वाला आत्मा स्वयं ही सामायिक हो जाता १६०. निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा का अशुभ परिणाम ही हिंसा है। १६१. निश्चय दृष्टि में विश्व की प्रत्येक वस्तु परिग्रह भी है और अपरिग्रह भी। यदि मूर्छा है तो परिग्रह है, मूर्छा नहीं है तो परिग्रह नही है। १६२ सव उपलब्धि एव भोग के उत्कृप्ट ऐश्वयं के कारण प्रत्येक जीव इन्द्र है। १६३ धर्म और अधर्म का आधार आत्मा की अपनी परिणति ही है । दूसरो की प्रसन्नता और नाराजगी पर उसकी व्यवस्था नही है। १६४, विनय जिनशासन का मूल है, विनीत ही संयमी हो सकता है । जो विनय से हीन है, उसका क्या धर्म, और क्या तप ?
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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