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________________ दो सौ भाप्यसाहित्य को सूक्तियां १३१. अपात्र (अयोग्य) को शास्त्र का अध्ययन नहीं कराना चाहिए, और पात्र (योग्य) को उससे वंचित नहीं रखना चाहिए । १३२. मिट्टी के कच्चे घडे मे रखा हुमा जल जिस प्रकार उस घडे को ही नप्ट कर डालता है, वैसे ही मन्दबुद्धि को दिया हुआ गम्भीर शास्त्र ज्ञान, उसके विनाश के लिए ही होता है। १३३ ज्ञान आत्मा का ही एक भाव है, इसलिए वह आत्मा से भिन्न नही है । १३४. जो दुर्गम एव विपम मार्ग मे भी स्खलित नहीं होता है, वह सम अर्थात् सोधे, सरल मार्ग मे कैसे स्खलित हो सकता है ? १३५. जितने भी चक्रयोधी (अश्वग्रीव, रावण आदि प्रति वासुदेव) हुए हैं, वे । अपने ही चक्र से मारे गए हैं । १३६. सघव्यवस्था मे व्यवहार बड़ी चीज है। केवली (सर्वज्ञ) भी अथने छद्मस्थ गुरु को स्वकर्तव्य ममझकर तब तक वंदना करते रहते हैं, जब तक कि गुरु उसको सर्वज्ञता से अनभिज्ञ रहते हैं । १३७. यतनापूर्वक साधना मे यत्नशील रहने वाला आत्मा ही सामायिक है। १३८ सात प्रकार के भय से सर्वथा मुक्त होने वाले भदत 'भवान्त या 'भयान्त' कहलाते हैं। १३६. आत्मा की चेतना शक्ति त्रिकाल है । १४०. ग्रात्मा के गुण अनिन्द्रिय-अमूर्त हैं, अत वह चमं चक्षुओ से देख पाना कठिन है । १४१ आत्मा नित्य है, अविनाशी है, एव शाश्वत है । १४२, आत्मा को कम वंध मिथ्यात्व आदि हेतुओ से होता है।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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