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________________ आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तिया एक सौ पैसठ ३५. ससार की कोई भी मोहात्मक क्रिया निष्फल (वंधनरहित) नही है, एक मान धर्म ही निष्फल है, अर्थात् स्व-स्वभाव रूप होने से बन्धन का हेतु नहीं है। ३६ मोह और द्वीप अशुभ ही होते है, राग शुभ और अशुभ दोनो होता है । ३७. मोह के कारण ही मैं और मेरे का विकल्प होता है। ३८ वाहर मे प्राणी मरे या जीये, अयताचारी-प्रमत्त को अन्दर मे हिंसा निश्चित है । परन्तु जो अहिंसा की साधना के लिए प्रयत्नशील है, समितिवाला है, उसको बाहर मे प्राणी की हिसा होने मात्र से कर्मवन्ध नही है, अर्थात् वह हिंसा नही है । ३९. यदि साधक प्रत्येक कार्य यतना से करता है, तो वह जल मे कमल की भाति निर्लेप रहता है। ४०. जव तक निरपेक्ष त्याग नही होता है, तव तक साधक की चित्तशुद्धि नहीं होती है। और जव तक चित्तशुद्धि (उपयोग की निर्मलता) नही होती है, तब तक कर्मक्षय कैसे हो सकता है ? ४१. जो कपायरहित है, इस लोक से निरपेक्ष है, परलोक मे भी अप्रतिवद्ध -अनासक्त है, और विवेकपूर्वक आहार-विहार की चर्या रखता है, वही सच्चा श्रमण है। ४२ परवस्तु की आसक्ति से रहित होना ही, आत्मा का निराहाररूप वास्त विक तप है । अस्तु, जो श्रमण भिक्षा मे दोषरहित शुद्ध आहार ग्रहण करता है, वह निश्चय दृष्टि से अनाहार (तपस्वी) ही है। ४३. शास्त्रज्ञान से शून्य श्रमण न अपने को जान पाता है, न पर को।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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