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________________ आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तिया एक सौ उनसठ ७. निश्चय दृष्टि से तो आत्मा अपने को ही करता है, और अपने को ही भोगता है। ८. अज्ञानी आत्मा ही कर्मों का कर्ता होता है । ६. अशुभ कर्म बुरा (कुशील) और शुभ कर्म अच्छा (सुशील) है, यह सावा रण जन मानते हैं । किंतु वस्तुतः जो कर्म प्राणी को ससार मे परिम्रमण कराता है, वह अच्छा कैसे हो सकता है ? अर्थात् शुभ या अशुभ सभी कर्म अन्तत हेय ही हैं। १०. जीव, रागयुक्त होकर कर्म वाचता है और विरक्त होकर कर्मों से मुक्त होता है। भले ही व्रत नियम को वारण करे, तप और शील का आचरण करे, किंतु जो परमार्थरूप आत्मवोच से शून्य है, वह कभी निर्वाण प्राप्त नही कर सकता। जिस प्रकार स्वर्ण अग्नि से तप्त होने पर भी अपने स्वर्णत्व को नहीं छोड़ता, वैसे ही ज्ञानी भी कर्मोदय के कारण उत्तप्त होने पर भी अपने स्वरूप को नही छोड़ते । १३. जिस प्रकार पका हुआ फल गिर जाने के बाद पुन वृन्त से नही लग सकता, उसी प्रकार कर्म भी आत्मा से वियुक्त होने के बाद पुनः आत्मा (वीतराग) को नही लग सकते । १४ जो अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है वह शुद्ध भाव को प्राप्त करता है, और जो अशुद्ध रूप का अनुभव करता है वह अशुद्ध भाव को प्राप्त होता है। १५. सम्यग् दृष्टि आत्मा जो कुछ भी करता है, वह उसके कर्मों को निर्जरा के लिए ही होता है।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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