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________________ उत्तराध्ययन की सूक्तिया एक सौ तेईस १३१. जरा और मरण के महाप्रवाह मे डूबते प्राणिओ के लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा=आधार है, गति है, और उत्तम शरण है। १३२. छिद्रो वाली नौका पार नही पहुंच सकती, किंतु जिस नौका मे छिद्र नही है, वही पार पहुंच सकती है। १३३. यह शरीर नौका है, जीव-आत्मा उसका नाविक (मल्लाह) है, और संसार समुद्र है । महर्षि इस देहरूप नौका के द्वारा ससार-सागर को तैर जाते हैं। १३४. ब्राह्मण वही है जो ससार मे रह कर भी काम भोगो से निर्लिप्त रहता है, जैसे कि कमल जल मे रहकर भी उससे लिप्त नही होता। १३५. सिर मुडा लेने से कोई श्रमण नही होता, ओकार का जप करने से कोई ब्राह्मण नही होता, जंगल मे रहने से कोई मुनि नही होता और कुगचीवर-वल्कल धारण करने से कोई तापस नही होता । १३६. समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, जान से मुनि और तपस्या से तापस कहलाता है। १३७. कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय । कर्म से ही वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र । १३८. जो भोगी (भोगासक्त), है, वह कर्मों से लिप्त होता है। और जो अभोगी है, भोगासक्त नही है, वह कर्मों से लिप्त नही होता । भोगासक्त ससार मे परिभ्रमण करता है । भोगो मे अनासक्त ही ससार से मुक्त होता है। १३९. मिट्टी के सूखे गोले के समान विरक्त साधक कही भी चिपकता नही है, अर्थात् आसक्त नहीं होता।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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