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________________ उत्तराध्ययन को सूक्तिया एक सौ ग्यारह ६६. जैसे कुशा (घास) की नोक पर हिलती हुई ओस की बू द बहुत थोडे समय के लिए टिक पाती है, ठीक ऐसा ही मनुष्य का जीवन भी क्षणभगुर है । अतएव हे गौतम ! क्षणभर के लिए भी प्रमाद न कर । ६७. पूर्वसचित कर्म-रूपी रज को साफ कर । ६८ मनुप्य जन्म निश्चय ही बडा दुर्लभ है । ६६. तेरा गरीर जीर्ण होता जा रहा है, केश पक कर सफेद हो चले हैं। शरीर का मव वल क्षीण होता जा रहा है, अतएव हे गौतम क्षण भर के लिए भी प्रमाद न कर । ७०. तू महासमुद्र को तैर चुका है, अब किनारे आकर क्यो वैठ गया ? उस पार पहुंचने के लिये गीघ्रता कर। हे गौतम । क्षण भर के लिए भी प्रमाद उचित नही है। ७१. अहंकार, क्रोध, प्रमाद (विषयासक्ति), रोग और आलस्य- इन पाच कारणो से व्यक्ति शिक्षा (ज्ञान) प्राप्त नहीं कर सकता। ७२. सुशिक्षित व्यक्ति न किसी पर दोपारोपण करता है और न कभी परिचितो पर कुपित ही होता है । और तो क्या, मित्र से मतभेद होने पर भी परोक्ष मे उसकी भलाई की ही बात करता है। ७३. प्रिय (अच्छा) कार्य करने वाला और प्रिय वचन बोलने वाला अपनी अभीष्ट शिक्षा प्राप्त करने मे अवश्य सफल होता है। ____७४, ऋषि-मुनि पदा प्रसन्नचित रहते हैं, कभी किसी पर ब्रोध नहीं करते।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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