SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किचित् प्राक्कथन इस निरक्षर जीवन के अन्त और साक्षर-जीवन के प्रारम्भ बाद जीवन में किस तरह विद्याभिरूचि उत्पन्न हुई और उसको तृप्त करने के लिये किन किन मार्गों का एवं उपायो का अनुसरण किया गया वह मेरी जीवन कथा का विषय है। उसकी प्रारम्भिक भूमिका रूप एक छोटीसी पुस्तिका अभी प्रकाशित हुई है उसमे इसका, कुछ दिग्दर्शन कराया गया है...............! . . ... इस साक्षर जीवन का प्रायः १० वर्ष में धीरे धीरे क्रमशः कुछ विकास होता रहा। इन वर्षों मे मुझे अव्यवस्थित हिन्दी, मराठी, एवं गुजराती भाषा का कुछ कुछ परिचय हुना परतु साहित्य की दृष्टि से कोई परिज्ञान नही मिला। न किसी विषय की कोई छोटी-मोटी पुस्तकें ही पढ़ने को मिली। जैन धर्म के एक संप्रदाय में साधु रूप की दीक्षा ग्रहण कर लेने के कारण प्राकृत-भाषा मे रचित जैन सूत्रों का तथा पुरानी राजस्थानी गुजराती मिश्रित भाषा में लिखे गये उनके अर्थों और विवरणो का परिज्ञान विशेष रूप से प्राप्त करने का कुछ अवसर मिला, परंतु भाषाकीय परिज्ञान की दृष्टि से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था। किसी भी देश की भाषा मे शुद्ध एवं सुव्यवस्थित रूप में बोलने का कोई अभ्यास नहीं हुआ, फिर लिखने की तो कल्पना ही कैसे हो सकती है ? परंतु मेरी रुचि छपी हुई पुस्तको के पढ़ने की ओर सदा आकृष्ट होती रही.....! - समाचार पत्रो के देखने का या पढने का प्रसग उक्त संप्रदाय मे संभव न था ..." .. सन् १९०८ मे मैंने संप्रदाय का परिवर्तन किया और एक अन्य जैन संप्रदाय की दीक्षा ली। इस संप्रदाय में कुछ छपी पुस्तकें पढ़ने का योग मिला। एक दिन ब्यावर के जैन उपाश्रय में रहते हुये एक शिक्षित जैन नवयुवक के हाथ में हिन्दी भाषा की सुप्रसिद्ध मासिक पत्रिका 'सरस्वती' की एक प्रति मेरे देखने मे भाई । जीवन में सर्व प्रथम/ एक मासिक पत्रिका देखी। जिसके ऊपर सुन्दर रंगीन आर्ट पेपर का
SR No.010613
Book TitleMere Divangat Mitro ke Kuch Patra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1972
Total Pages205
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy